: १८ : आत्मधर्म : प्र. चैत्र:
केवळज्ञानने उत्पन्न करनारी
भेदज्ञान ज्योति
आ जीव ज्यारे भेदज्ञानने उत्पन्न करीने पोताना दर्शन–ज्ञान–स्वभावमां
एकतापणे परिणमतो थको, दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां स्थित थाय छे त्यारे ते
‘स्वसमय’ छे...
भेदज्ञानज्योति केवी छे? के केवळज्ञानने उत्पन्न करनारी छे. रागादि साथे
एकताबुद्धि ते तो चार गतिरूप संसारने उत्पन्न करनारी हती.
जीवने क््यारे भेदज्ञान थयुं कहेवाय? के सर्व परद्रव्योथी छूटी अने परद्रव्य
तरफना रागादि भावोथी पण जुदो पडी, पोताना स्वभाव साथे ज एकतारूपे
सम्यग्दर्शनादिरूपे परिणमे त्यारे ते जीवने भेदज्ञानज्योतिनो उदय थयो छे.
जे काळे जीवे स्वसन्मुख थईने स्वभावमां एकता करी ते ज काळे ते सर्व
परद्रव्योथी छूट्यो;–ए रीते भेदज्ञान थतां स्वमां एकता ने परथी भिन्नता थाय छे.
आवुं भेदज्ञान ते केवळज्ञाननुं साधन छे.
अनादिथी आत्मा स्व–परनी भिन्नताना अज्ञानने लीधे रागादिमां एकत्वरूपे
लीन थईने वर्ततो हतो, रागमां लीन थयो ते कर्ममां ज लीन थयो एम कहेवामां आवे
छे, ने तेने ज परसमयपणुं कहेवाय छे, रागथी जुदुं चैतन्यनुं अस्तित्व ज तेने भासतुं
नथी.
ज्यारे भेदज्ञान थयुं त्यारे ज्ञानीने भिन्न आत्मानी प्रतीति आवी, तेने
रागादिमां जरापण एकत्वबुद्धि थती नथी, ते रागथी जुदो पडीने पोताना
निजस्वभावमां एकतापणे परिणमे छे; निजस्वभाव शुं? के दर्शन–ज्ञानस्वभाव
निजस्वभाव छे, तेमां जे परिणम्यो ते मोक्षना मार्गमां आव्यो.
भाई, आ तो धीरा पुरुषोनां काम छे, धीरो थईने अंदर ज्ञानमां बराबर
स्वभावने ल्ये ने तेमां परिणति करे त्यारे स्वसमयपणुं थाय छे, ते ज मोक्षनो मार्ग छे.
ज्ञानीने स्वरूपमां एकतारूपे परिणमन, अने तेनुं ज्ञान ते एक ज काळे वर्ते छे;