Atmadharma magazine - Ank 246
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: प्र. चैत्र : आत्मधर्म : २७ :
संवेदन प्रत्यक्ष ते निश्चय अने अनुमान ते व्यवहार; जेम निश्चय वगर व्यवहार होय
नहि, तेम आत्माना स्वसंवेदन प्रत्यक्ष वगर अनुमान साचुं होय नहीं. भाई, तारा
आत्माना अनुभव वगर बहारना अनुमानथी तुं ज्ञानीनुं माप काढवा जईश तो
भ्रमणामां पडीश. आ आम खाय छे, आम बोले छे माटे ते धर्मी नहि होय, अने आ
त्यागी थईने बेठो छे माटे ते धर्मी हशे–एम जो तुं एकलुं अनुमान करवा जईश तो
व्यवहारमूढता थशे. भाई, स्वतत्त्वनो निर्णय तो स्व तरफनी अवस्थाथी थाय के पर
तरफनी? स्व परफ झूकीने आत्मानुं स्वसंवेदन करनार ज्ञाननी दशा भले अधूरी होय
तोपण स्वमां अभेद थयेली ते दशाने प्रत्यक्ष कहेवामां आवे छे. ने एवा स्वसंवेदन
प्रत्यक्षवडे पोताना आत्मानो जे निर्णय करे ते ज बीजा धर्मात्माने अनुमानथी
ओळखी शके. प्रत्यक्ष वगर एकला अनुमानमां आवी जाय–एवो आत्मा नथी.
अनुभवी होय ते ज अनुभवीने ओळखे. ‘आ आत्मा सर्वज्ञ छे, आ आत्मा मुनि छे,
आ आत्मा साधकधर्मी छे, आ आत्मा सम्यग्द्रष्टि छे’ एम एकला अनुमानथी जाणी
शकातुं नथी, पण जे जात तेमने (सर्वज्ञने के साधकने) प्रगटी छे तेवी जातनो
स्वसंवेदननो अंश पोतामां प्रगट करे तो ज तेमनी खरी ओळखाण करी शके. पूर्ण
स्वसंवेदन जेमने प्रगट थयुं छे तेनो निर्णय तेवी जातनो अंश पोतामां प्रगट्या वगर
थई शके नहि. सिद्ध भगवान, अर्हंत भगवान, गुरु–छठ्ठा गुणस्थानवाळा, के
पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक, के चोथा गुणस्थाने बिराजता, सम्यग्द्रष्टि–तेनी
ओळखाणनी रीतनी पण जगतने खबर नथी. ज्यां स्वसंवेदनमां आत्माना
स्वभावनो निर्णय कर्यो त्यां खबर पडी के ज्ञानी केवा होय, मुनि केवा होय, सर्वज्ञ केवा
होय! पहेलां साधारण देखादेखीथी ओळखे पण ज्यां स्वसंवेदनथी खरी ओळखाण
थई त्यां एम थाय के अहों, ज्ञानीनी खरी ओळखाण मने हवे थई, हवे में ज्ञानीने–
गुरुने–भगवानने खरेखरा ओळख्या. एकला उदयना प्रवर्तन उपरथी ज्ञानीनी खरी
ओळखाण थती नथी. ज्ञानी तो उदयभावनो तमाशगीर छे; तेनो कर्ता, भोकता के
अवलंबी नथी. तेथी कोई एम कहे के– ‘आ प्रकारना औदयिकभाव सर्वथा होय तो
तेने अमुक गुणस्थान कहीए– ‘तो एम कहेवुं ए जूठ छे. एम कहेनारे द्रव्यनुं स्वरूप
सर्वथा प्रकारे जाण्युं नथी. कारण, अन्य गुणस्थाननी तो वात शुं कहेवी, केवळीओमां
पण औदयिकभावनुं भिन्न भिन्न प्रकारपणुं जाणवुं. केवळीओना औदयिकभाव पण एक
सरखा होय नहि. कोई केवळीने दंड–कपाटरूप क्रियानो (समुद्घातनो) उदय होय, त्यारे
कोई केवळीने ते न होय; ए ज रीते वाणीनो योग कोईने होय, कोईने न होय; ए
प्रमाणे केवळीभगवंतोमां पण उदयनी अनेकविधता छे, तो अन्य