Atmadharma magazine - Ank 247
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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श्री कानजीस्वामी–हीरकजयंती–अभिनंदन–अंक
वैशाख सुद २ः ११ः
भगवान महावीरे दिव्यवाणीमां शुं कह्युं? ‘अहिंसा परमो धर्मः’–अहिंसा ए
परम धर्म छे...आ वीरनो उपदेश छे. चैतन्यस्वभाव आत्मामां रागद्वेषना भावो
उत्पन्न ज न थाय ने वीतरागभाव रहे–ते ज वीरनी अहिंसा छे, ने ते ज धर्म छे.
वीर एवो जे आत्मा, ते अंतरना पुरुषार्थनी वीरता वडे वीरना वीतरागमार्गे चडे, ते
ज वीरनो मार्ग छे, एवो..वीरनो मार्ग अफरगामी छे...वीरना मार्गे जे चडयो ते
वीतराग थये छूटको...
भगवानना भक्त कहे छे के अहो, वीरजिनेश्वर! तारा चरणे लागुं ने तारा
मार्गने साधुं...अंतरमां चैतन्यरसथी भरेलो असंख्यप्रदेशी दरियो, तेने साध्यो त्यां मोह
भाग्यो, ने जीतनगारा वाग्या...अहो, आवुं वीरपणुं तो आत्मामां ज छे. कायरने आ
वात आकरी लागे छे, ने बाह्यद्रष्टिनी–पराश्रयनी वात सहेली लागे छे. पण हे नाथ!
अमे तो आपनी वाणीथी जाण्युं के वीरपणुं तो आत्मामां ज छे. ज्ञान–चरित्रनी
शक्तिद्वारा अंदरना आ ध्रुवपदनी प्राप्ति थाय छे. अरे प्रभु! तारामां रहेली तारी
प्रभुताने तें कदी जाणी नथी. अनंती तारी शक्ति, तेने पहिचान्या वगर, अनादि
भरभावोमां धर्म मानीने तें तारा आत्मानी हिंसा करी छे, ते अधर्म छे. अने रागथी
पार चैतन्य स्वभाव छे, तेने शुभाशुभथी पार ओळखवो ने रागादि परभावोथी
चैतन्यप्राणने जरापण हणावा न देवा–ते खरी अहिंसा छे, ए ज वीरनी अहिंसा छे...
ए ज वीरनी हाक छे.
संतो ते सर्वज्ञना प्रतिनिधि छे, तेओ सर्वज्ञनो सन्देश जगतने संभळावे छे के
अरे जीवो! प्रतीत तो करो...तमारामांय आवुं सर्वज्ञपद भर्युं छे...जगतना पदार्थो वगर
ज पोते पोताना स्वभावथी परिपूर्ण छे, पण “मारे अमुक परवस्तु वगर चाले नहि”
एम पराधीनद्रष्टिथी मान्युं छे ने तेथी ज पराश्रयथी संसारमां रखडयो छे. खरेखर तो
परना वगर ज (एटले के परना अभावथी ज) पोते पोताथी टकेलो छे. दरेक तत्त्व
पोतानी अस्तिथी ने परनी नास्तिथी ज टकेलुं छे. पोतानुं अनंतपणुं पोतामां छे–
ज्यां चेतन त्यां अनंतगुण, केवळी भाखे एम,
प्रगट अनुभव आतमा... निर्मळ करो सप्रेम रे...
चैतन्यप्रभु...प्रभुता तमारी चैतन्यधाममां...