
उत्पन्न ज न थाय ने वीतरागभाव रहे–ते ज वीरनी अहिंसा छे, ने ते ज धर्म छे.
वीर एवो जे आत्मा, ते अंतरना पुरुषार्थनी वीरता वडे वीरना वीतरागमार्गे चडे, ते
ज वीरनो मार्ग छे, एवो..वीरनो मार्ग अफरगामी छे...वीरना मार्गे जे चडयो ते
वीतराग थये छूटको...
भाग्यो, ने जीतनगारा वाग्या...अहो, आवुं वीरपणुं तो आत्मामां ज छे. कायरने आ
वात आकरी लागे छे, ने बाह्यद्रष्टिनी–पराश्रयनी वात सहेली लागे छे. पण हे नाथ!
अमे तो आपनी वाणीथी जाण्युं के वीरपणुं तो आत्मामां ज छे. ज्ञान–चरित्रनी
शक्तिद्वारा अंदरना आ ध्रुवपदनी प्राप्ति थाय छे. अरे प्रभु! तारामां रहेली तारी
प्रभुताने तें कदी जाणी नथी. अनंती तारी शक्ति, तेने पहिचान्या वगर, अनादि
भरभावोमां धर्म मानीने तें तारा आत्मानी हिंसा करी छे, ते अधर्म छे. अने रागथी
पार चैतन्य स्वभाव छे, तेने शुभाशुभथी पार ओळखवो ने रागादि परभावोथी
चैतन्यप्राणने जरापण हणावा न देवा–ते खरी अहिंसा छे, ए ज वीरनी अहिंसा छे...
ए ज वीरनी हाक छे.
ज पोते पोताना स्वभावथी परिपूर्ण छे, पण “मारे अमुक परवस्तु वगर चाले नहि”
एम पराधीनद्रष्टिथी मान्युं छे ने तेथी ज पराश्रयथी संसारमां रखडयो छे. खरेखर तो
परना वगर ज (एटले के परना अभावथी ज) पोते पोताथी टकेलो छे. दरेक तत्त्व
पोतानी अस्तिथी ने परनी नास्तिथी ज टकेलुं छे. पोतानुं अनंतपणुं पोतामां छे–
प्रगट अनुभव आतमा... निर्मळ करो सप्रेम रे...
चैतन्यप्रभु...प्रभुता तमारी चैतन्यधाममां...