Atmadharma magazine - Ank 247
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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श्री कानजीस्वामी–हीरकजयंती–अभिनंदन–अंक
ः २०ः वैशाख सुद २
“ज”
[अनेकान्तमां ज नुं स्थान]
क्यारे अमृत....ने क्यारे झेर?
ज्यारे वस्तुनुं कोई एक नयनी अपेक्षाए कथन करवामां आवे त्यारे तेमां
“एमज छे” एवुं कथन थाय छे. जेमके “स्वनी अपेक्षाए आत्मा अस्तिरूप ज
छे”. परंतु स्व अपेक्षाए आत्मा कथंचित् अस्तिरूप छे–एम कहेवाय नहि. कोइ
कहे छे के स्याद्वादमां ‘ज’ होय नहि–तो एम नथी, स्याद्वादमां पण ज्यारे कोइ
एक खास अपेक्षाथी कथन करवुं होय त्यारे तेमां ‘ज’ लागु पडे छे. जेमके द्रव्य
अपेक्षाए जीव नित्य ज छे ने पर्याय अपेक्षाए ते अनित्य ज छे. जीव, स्वभाव
अपेक्षाए अस्तिरूप ज छे ने पर्याय अपेक्षाए नास्तिरूप ज छे. तेमां ‘ज’ होवा
छतां ते स्याद्वादनुं कथन छे, ते कांइ एकांतवाद थइ जतुं नथी.
जेम जीव ते जीवपणे छे ज ने अजीवपणे नथी ज. तथा अजीव ते अजीवपणे छे
ज ने जीवपणे नथी ज एम अस्ति–नास्तिमां ‘ज’ द्वारा तेनो निर्णय थाय छे. तेम
निश्चय व्यवहारमां पण छे के–जे निश्चय छे ते निश्चयपणे ज अस्ति छे ने व्यवहारपणे
ते नथी ज, तथा जे व्यवहार छे ते व्यवहारपणे ज अस्तिरूप छे ने निश्चयपणे ते
नास्तिरूप ज छे, असत् ज छे.
हवे जे व्यवहार पोते निश्चयपणे असत् ज छे ते व्यवहार निश्चयनुं कारण
केम थाय? न ज थाय! व्यवहार व्यवहारपणे पण कथंचित् सत् छे ने व्यवहार ते
निश्चय–