
मनमां ने मनमां दीक्षा लेवानो विचार करवा लाग्या, ने ते माटे भगवानना दरबार
तरफ जवा लाग्या. आ बधाय कुमारो हजी कुंवारा छे, महान राजवैभव तेमने मळ्यो छे
पण ते भोगववानी लालसा नथी; तेओने तो मुक्ति लेवानी भावना छे अने ते माटे
दीक्षा लेवाने तैयार थया छे, ने नीचे मुजब भावना भावतां भावतां ऋषभदेवप्रभुना
धर्मदरबार तरफ तेओ जई रह्या छेः–
प्रभुनी वाणी छूटे छे....आत्मस्वरूप देखाडे छे...
स्वरूप समजतां आनंद थाय....एमां ठरतां मुक्ति थाय...
चालो प्रभुने दरबार....
मने गमे नहि संसार....मारे जावुं पेले पार....
चालो प्रभुने दरबार....
अद्भूत वर्णन आवे छे के आत्मार्थी जीवने तो ते वांचतां ऊंडी वैराग्य भावनाओ
जागे छे, दीक्षा लीधी पछी ते १०० कुमार–मुनिओ आत्मध्यानमां मग्न थया; केटलाक
वखत सुधी आत्मध्याननो अभ्यास करतां तेओने केवळज्ञान प्रगट थयुं; तेओ बधाय
मुक्ति पाम्या, ने भगवान थया.
आ फळ छे, माटे तमे जीव अने अजीव वस्तुने बराबर ओळखजो
अने आ वैरागी राजकुमारोना आदर्शने तमारा जीवनमां उतारजो.