
मनन जरूर करे. जेने आत्मानी लगनी लागी होय ते स्वाध्याय अने मनन
वगर एक पण दिवस खाली जवा द्ये नहि. जेम व्यसनी माणसने पोताना
व्यसननी चीज वगर एक पण दिवस चालतुं नथी तेम आत्मार्थी जीवने
आत्माना स्वाध्याय मनननुं व्यसन (लगनी) लागी जाय छे. जेम बने तेम
सद्गुरुना साक्षात् सत्समागममां रहीने आत्मानुं श्रवण–मनन करवुं जोइए;
अने ज्यारे सद्गुरुना साक्षात् सत्समागमनो योग न बनी शके त्यारे तेमनी
आज्ञा अनुसार शास्त्रनुं वांचन अने मंथन करवुं जोइए. “प्रत्यक्ष सद्गुरु योग
नहि त्यां आधार सुपात्र’ प्रत्यक्ष सद्गुरुना योगमां रहीने श्रवण–मनन करवुं ते
तो उत्तम छे, परंतु ज्यारे सद्गुरुना प्रत्यक्ष योगमां पोते न होय त्यारे तेमना
कहेला आत्मस्वरूप बतावनारा सत्शास्त्रोनुं स्वाध्याय अने मनन करवुं ते सुपात्र
जीवोने आधाररूप छे. श्रावकोए हंमेशा करवा योग्य छ कर्तव्योमां स्वाध्यायने
पण एक कर्तव्य गण्युं छे. रोज रोज नवा नवा प्रकारना वांचन–मननथी
आत्मार्थी जीव पोताना ज्ञाननी निर्मळता वधारतो जाय छे. गमे तेवा संयोगमां
अने गमे तेवी प्रवृत्तिमां पडयो होय तो पण हंमेशां चोवीस कलाकमांथी कलाक बे
कलाकनो वखत तो स्वाध्याय–मननमां गाळवो ज जोइए, अरे! छेवटमां
छेवट....ओछामां ओछो पा कलाक तो हंमेशां निवृत्ति लइने एकांतमां शांतिपूर्वक
आत्माना स्वाध्याय ने विचार करवा ज जोइए. हंमेशां पा कलाक वांचन–
विचारमां काढे तो पण महिनामां साडासात कलाक थाय; तथा हंमेश–हंमेश सत्नुं
स्वाध्याय–मनन करवाथी अंतरमां तेना संस्कार ताजा रह्या करे अने तेमां द्रढता
थती जाय. जो स्वाध्याय–मनन बिलकुल छोडी द्ये तो तो तेना संस्कार पण भुलाय
जाय. निवृत्ति लइने आत्मानो विचार करवा पण जे नवरो न थाय तो पछी
विकल्प तोडीने आत्माना अनुभवनो