श्री कानजीस्वामी–हीरकजयंती–अभिनंदन–अंक
वैशाख सुद २ः ४७ः
अहो! आत्मानो सर्वज्ञ स्वभाव
सिद्धभगवंतोना निरुपाधि ज्ञान–दर्शन ने सुखनुं वर्णन करतां
आचार्यदेव पंचास्तिकाय गा. २९मां कहे छे के निज शक्तिना अवलंबनथी
स्वयमेव सर्वज्ञ थयेला जे स्वकीय सुखने अनुभवनारा सिद्धभगवंतोने
परथी कांइ प्रयोजन नथी. ए सिद्ध भगवंतोना सर्वोच्च आदर्शने लक्षमां
लइने तुं पण हे जीव! परालंबननी बुद्धि छोड, ने स्वालंबनमां आत्माने
जोड....आम करवाथी तारो आत्माय सिद्धना मार्गे संचरशे.
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जादो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोगदरसी य
पप्पोदि सुहमणंतं अव्वाबाध सगममुत्त।। २९।।
हरिगीत
स्वयमेव चेतक सर्वज्ञानी सर्वदर्शी थाय छे,
ने निज अमूर्त अनंत अव्याबाध सुखने अनुभवे. (२९)
पंचास्तिकायनी आ गाथामां आचार्यदेव कहे छे के, जीवनो स्वभाव पोतानी
मेळे सर्वज्ञ थवानो छे. देहथी भिन्न आत्मतत्त्व छे, तेनामां पोताना स्वभावथी सर्वने
जाणवा–देखवानी ताकात छे; ज्यां ज्ञान–दर्शननी पूर्णता थाय त्यां आनंदनी पण
पूर्णता होय ज. जेने आत्मानुं हित करवुं होय तेणे शुं करवुं तेनी आ वात छे.
शरीर ते जड छे, अजीव छे; भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति छे. मारामां ज
सर्वज्ञसर्वदर्शी अने पूर्ण आनंद थवानी ताकात छे. पर्यायमां अल्पज्ञता होवा छतां हुं
स्वयं मारा स्वभावथी पूर्ण ज्ञान–दर्शन–आनंदमय थइ शकुं छुं. आवी प्रथम प्रतीत
करवी जोइए. ते माटे पहेलां सर्वज्ञनी सिद्धि करे छे.