श्री कानजीस्वामी–हीरकजयंती–अभिनंदन–अंक
ः प०ः वैशाख सुद २
‘सर्वज्ञ छे’ तेने कोइ बाधक प्रमाण नथी. आत्मानो स्वभाव ज ज्ञान
छे. तेमां शरीरादि तो क्यांय रह्यां, ने रागादि पण तेना स्वभावमां नथी.
आत्मामां ज्ञानादि अनंतगुणो त्रिकाळ ध्रुव छे, तेमां क्षणे क्षणे पलटो थाय छे
ते पलटो स्वभावना आश्रये थतां ज्ञान–आनंद वगेरे खीले छे, पण कोइ
निमित्त वगेरेना आश्रये ज्ञानादि खीलतां नथी. पर्यायमां रागादि अने
अल्पज्ञता छे. ते तो उपरनो क्षणिक भाग छे ने ध्रुव स्वभाव पूर्ण त्रिकाळ छे.
आत्मा चैतन्य हीरो छे, तेनी पर्यायना एक पासामां जराक डाघ छे, पण
ज्ञान–दर्शन–आनंदनो कंद आखो चैतन्य हीरो डाघवाळो नथी. एम पर्यायने
गौण करीने ध्रुव आनंदकंद चिदानंद स्वभावने प्रतीतमां लइने तेमां एकाग्रता
करतां आत्मामांथी रागादि नीकळीने पूर्ण ज्ञान–आनंद प्रगटे छे. सर्वज्ञता थाय
त्यां पूर्ण आनंद होय ज.
पहेलां साधक दशामां अधूरो आनंद हतो; अज्ञानीए परमां सुख अने आनंद
मान्यो हतो, तेने बदले हुं तो परथी भिन्न चिदानंद स्वभाव छुं–एम अंतरद्रष्टिनो
विषय करतां स्वभावमांथी आनंद प्रगटयो ने पूर्णानंदनी प्रतीत थइ गइ. जूओ, आ
सर्वज्ञनी प्रतीत!
हुं मारा आत्मामां पूर्णज्ञान अने आनंद प्रगट करवा मागुं छुं तो मारा पहेलां
पूर्णज्ञान–आनंद प्रगट करनारा जीवो थइ गया छे, ते केवा छे? क्यां छे? केटला छे?
एम नक्की करवुं जोइए.
अनादिकाळथी क्रमे क्रमे सर्वज्ञो थता ज आवे छे, सिद्धलोकमां एवा अनंत सिद्धो
सर्वज्ञपणे बिराजे छे, महाविदेहमां सीमंधरादि तीर्थंकरो अने लाखो केवळी भगवंतो
अत्यारे देहसहित सर्वज्ञपणे बिराजे छे.
आ रीते अनादिकाळ, सिद्धलोक, महाविदेह क्षेत्र ए बधुं कबूल्या विना
सर्वज्ञने मानी शके नहि. जे सर्वज्ञ थया ते बधाय पोताना आत्मामांथी ज थया
छे–एम नक्की करीने पोते पोताना आत्माना सर्वज्ञ स्वभावनी प्रतीति करवी ते
प्रथम धर्म छे.
केवळी सर्वज्ञ केवा होय? क्यां होय? ते सर्वज्ञता क्यांथी प्रगटे? ते सर्वज्ञताना
साधक संतोनी दशा केवी होय? ने सर्वज्ञनां कहेलां शास्त्रो केवां होय? आ बधुं नक्की
कर्या विना धर्म थाय नहि.