श्री कानजीस्वामी–हीरकजयंती–अभिनंदन–अंक
वैशाख सुद २ः ६३ः
वार्ता छठ्ठी
सौराष्ट्रनी श्रुतवत्सल संतत्रिपुटी
सौराष्ट्रना गीरनारधाम उपरनुं श्रुतवत्सल–संतत्रिपुटीनुं आ द्रश्य जोतां ज
ए श्रुतवत्सल–संतत्रिपुटी प्रत्ये अने श्रुतज्ञान प्रत्ये भक्तिथी हृदय भींजाइ जाय छे.
लगभग बे हजार वर्ष पहेलां गीरनारनी चंद्रगूफामां धरसेनाचार्यदेव बिराजता
हता, वीरप्रभुनी परंपराथी चाल्युं आवतुं अंग–पूर्वनुं एकदेश ज्ञान तेमने हतुं.
तेओ भारे श्रुतवत्सल हता. आ अंगपूर्वनी ज्ञानपरंपरा अच्छिन्न टकी रहे एवी
भावनाथी तेमणे बे मुनिओने बोलाव्या. बन्ने समर्थ मुनिवरो आवी रह्या हता
त्यारे अहीं धरसेनस्वामीए मंगळस्वप्न जोयुं के बे धोरी बळद प्रदक्षिणापूर्वक
चरणोमां नमी रह्या छे. शासननी धूरा वहन करी शके एवा बे मुनिओना
आगमनसूचक स्वप्न जोतां “श्रुतदेवता जयवंत हो” एवा आशीर्वचन
आचार्यदेवना मुखथी नीकळ्या.
पछी बन्ने मुनिओनी परिक्षा करीने, तेमने सर्वज्ञपरंपराथी चाल्युं आवतुं
श्रुतज्ञान आप्युं.–एमांथी सिद्धांतशास्त्रो षट्खंडागम रचाया, ने अंकलेश्वरमां जेठ सुद
पांचमे ए श्रुतज्ञाननी पूजानो मोटो महोत्सव चतुर्विधसंघे ऊजव्यो....त्यारथी ए दिवस
‘श्रुतपंचमी’ तरीके प्रसिद्ध थयो, जे आजे पण जैन शासनमां सर्वत्र उजवाय छे.
नमस्कार हो ए जिनवाणीरक्षक श्रुतवत्सल संत भगवंतोने!
वार्ता सातमी
अकंपनाचार्यनी अडगता.....विष्णुकुमारनी वत्सलता
निर्दोष वात्सल्यनुं प्रतीक एवुं रक्षाबंधन–पर्व ए जैनोनुं एक महान
ऐतिहासिक पर्व छे. ७०० मुनिवरोनी रक्षानो अने धर्मरक्षणनी महान वात्सल्य
भावनानो प्रसंग ए पर्व साथे जोडायेलो छे. ए प्रसंग हस्तिनापुरमां बन्यो. पहेलां
उज्जैननगरीमां अकंपनाचार्य ७०० मुनिओना संघसहित पधार्या, दुष्ट मंत्रीओ साथे
राजा तेमने वंदन