Atmadharma magazine - Ank 248
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९० आत्मधर्म : ११ :
चारित्र सर्वथा अशुद्ध ज रहे–एम बनतुं नथी. चारित्रनुं वर्तन थोडुंक विकारी होवा
छतां, ते वखते श्रद्धा–ज्ञानगुणना स्वाश्रित परिणमनवडे विकाररहित आत्मानी श्रद्धा
तथा ज्ञान थाय छे. माटे, जो कोई जीव आत्मामां अनंतगुणो न माने ने एक ज गुण
माने तो तेने साधकदशा थई शके ज नहि, तेने तो विकार वखते विकार जेटलो ज
आत्मा मानवानुं रहे, पण विकार वखते विकाररहित शुद्ध आत्मानी श्रद्धा तथा ज्ञान
तेने थई शके नहि, केमके ते गुणोने ज तेणे स्वीकार्या नथी. अवस्थामां राग–द्वेषरूप जे
क्षणिक मलिनता छे ते ज्ञान सिवाय बीजा गुणनी छे, ज्ञाननी मलिनता नथी. तेथी ते
मलिनताथी जुदुं रहीने ज्ञाने स्वभाव तरफ वळीने आत्माना निर्मळ गुणोने जाण्या,
एटले तेना आश्रये साधकदशा शरू थई गई. ते जीव पोताने क्षणिक राग–द्वेष जेटलो
ज मानी लेतो नथी.
आत्मानी वर्तमान पर्यायमां रागादि मलिनता छे ते चारित्रगुणनी विपरीतदशा
छे. त्यां तेने ज अज्ञानी आखो आत्मा मानतो तेथी मिथ्या श्रद्ध–ज्ञान हतां. हवे ते
मिथ्या मान्यता फेरवीने श्रद्धा–ज्ञान स्वसन्मुख थतां एम मान्युं के त्रिकाळ धु्रव चैतन्य
ते ज हुं छुं, मारा त्रिकाळी स्वभावमां मलिनता नथी; अवस्थामां जे क्षणिक अल्प
मलिनता छे तेटलो आखो आत्मा नथी. स्वभाव तरफ वळेला स्व–पर प्रकाशक ज्ञाने ते
मलिनताने ज्ञेय तरीके जाणी खरी के आ चारित्रनो दोष छे, पण ते मारो मूळ स्वभाव
नथी. ते दोष वखते पण बीजा ज्ञान श्रद्धान् गुणवडे धु्रव शुद्ध नित्य आत्मानुं ज्ञान–
श्रद्धान् थाय छे, एटले विकार वखते पण शुद्ध आत्माना सम्यक् श्रद्धान–ज्ञानमां धर्मी
जीवने शंका पडती नथी. जो एकेक आत्मामां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वगेरे अनेक गुणोने
(एटले के अनेकांत स्वभावने) न स्वीकारो तो साधकपणुं ज साबित थाय नहि, ने
साधकपणा वगर बाधकपणुं पण सिद्ध न थाय, एटले संसार–मोक्षनो ज अभाव ठरे.–
परंतु ए वात प्रत्यक्ष विरुद्ध छे.
वळी जो सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थतां तेनी साथे ज पूरुं चारित्र ऊघडी जतुं होय ने
वर्तननो जरा पण दोष न रहेतो होय तो साधकपणाना प्रकारो ज पडे नहि पण
सम्यक्श्रद्धा साथे ज बधा जीवोने वीतरागता थई जाय, एटले कथंचित् गुणभेदरूप जे
वस्तुस्वरूप छे ते सिद्ध थाय नहि, माटे ते पण विरुद्ध छे.
आत्मवस्तुमां श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र वगेरे अनेक गुणो छे अने गुण अपेक्षाए
ते दरेकनुं कार्य भिन्न भिन्न छे–आम यथार्थ अनेकांतने समजे तो ज वस्तुस्वरूपनी
सिद्धि थाय.