
जेमांथी कल्याण प्रगटे छे एवी धु्रव वस्तुनी श्रद्धा करवाथी तेना आधारे कल्याण
प्रगटतुं जाय छे. धु्रव वस्तुनी श्रद्धा थई त्यां अंशे कल्याण प्रगट्युं छे ने हजी अंशे
अकल्याण पण छे. जो संपूर्ण कल्याण थई जाय तो अकल्याण बाकी रहे नहि. रागद्वेष
ते अकल्याण छे ने वीतरागभाव ते कल्याण छे. अवस्थामां अंशे अकल्याण (–
रागद्वेष) होवा छतां शुद्ध आत्मानो विवेक थाय छे ने सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानरूप कल्याण
प्रगटे छे. तेथी श्री आचार्यदेवे पहेलां शुद्ध आत्माने जाणवानी वात मूकी छे.
शुद्धात्माने जाणवानी साथे ज पूरुं ज वर्तन (–वीतरागता) थई जतुं नथी पण तेमां
क्रम पडे छे. जो सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थतांनी साथे ज चारित्र पूरुं थई जतुं होय तो
साधकदशा रहे नहि.
जीवोथी पोते स्वतंत्र छे, बधा आत्मा जुदा जुदा स्वतंत्र छे, तेमांथी जे शुद्धात्माने जाणे
तेने ज शुद्धात्मदशा प्रगटे छे, ने जे शुद्धात्माने नथी जाणतो तेने शुद्धात्मदशा थती नथी.
वळी आमां परिणमन पण नक्की थई गयुं; केमके अनादिथी शुद्ध आत्माने जाण्यो न
हतो ते अज्ञानदशा पलटीने हवे शुद्धात्माने जाण्यो. जो अवस्था पलटती न होय तो
एम बनी शके नहि. ए प्रमाणे शुद्ध आत्माने जाणीने तेमां लीनताथी जे पूर्ण शुद्ध
थई गया ते ‘देव’ छे. शुद्धात्माने जाण्यो होवा छतां जेमने हजी पूर्ण शुद्धदशा प्रगटी
नथी पण साधकदशा छे ते ‘गुरु’ छे, ने आवा देव–गुरुनी अनेकांतमय वाणी ते
शास्त्र छे. शुद्ध आत्माने जाणे ते वखते ज आत्मा पूरो शुद्ध सर्वज्ञ थई जतो नथी
पण हजी स्वभाव तरफ विशेषपणे वळवानुं ने अशुद्धता टाळवानुं–साधकपणुं रहे छे,
एटले ज्ञानना भेदो तेम ज गुणस्थानना भेदो पडे छे–आ रीते अनेक प्रकार सिद्ध थई
जाय छे.