
शरूआत थई छे. वर्तननी क्षणिक मलिनताने सम्यक्श्रद्धा स्वीकारती नथी पण धु्रव शुद्ध
द्रव्यने ज ते स्वीकारे छे, अने ते धु्रवना ज आधारे वर्तननी पूर्णता थईने हुं सर्वज्ञ थई
जईश एम ज्ञान जाणे छे.
प्रगट करवी छे. बधो अधर्म एक साथे टळी जतो नथी पण ते टाळवामां क्रम पडे छे. जे
जीव धर्मी थाय तेने सौथी पहेलां केटलो अधर्म टळे? पहेलां शुद्ध आत्माने जाणतां
मिथ्या श्रद्धा अने मिथ्याज्ञानरूप अधर्म तो टळी जाय छे, ने चारित्रना अधर्मनो एक
अंश टळे छे पण चारित्रनो बधो अधर्म टळी जतो नथी. पहेलांं सम्यक्श्रद्धा अने
सम्यग्ज्ञानरूप धर्म एक साथे प्रगटे छे ने पछी सम्यक् चारित्र थाय छे, ते चारित्रधर्म
क्रमे क्रमे प्रगटे छे. ‘हुं शुद्ध, धु्रव, उपयोगस्वरूप छुं’ एम श्रद्धा–ज्ञाने मान्युं तथा जाण्युं
ते धर्म छे, अने जे राग–द्वेष थाय छे ते अधर्म छे; ए रीते साधकने अंशे धर्म ने अंशे
अधर्म बंने साथे छे. पहेलांं शुद्ध आत्माने जाणतो न हतो ने पुण्य–पापने ज पोतानुं
स्वरूप मानतो त्यारे तो ते जीवने श्रद्धा, ज्ञान ने वर्तन ए त्रणे खोटां हतां एटले
एकलो अधर्म ज हतो. ते अधर्मीपणामां तो जीव विकारने अने परने ज ज्ञानमां ज्ञेय
कर! ने तेनी ज श्रद्धा करतो हतो तेने बदले हवे ज्ञानने स्व तरफ वाळीने आत्माने
ज्ञाननुं स्वज्ञेय कर्युं ने तेनी ज श्रद्धा करी, त्यां ज्ञान अने श्रद्धा सुधर्यां ने चारित्रनो
पण एक अंश सुधर्यो. छतां हजी ते धर्मीने चारित्रमां अंशे विकार पण छे. परंतु ते
विकार होवा छतां तेना सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानरूप धर्मनो नाश थतो नथी. ए रीते पहेलां तो
मिथ्याश्रद्धा अने मिथ्याज्ञानरूप अधर्म टळे छे ने पछी ज रागद्वेष टळे छे.
रोकायुं तथा पहेलां जे श्रद्धा पुण्य पापने ज आत्मा मानती हती तेणे हवे धु्रव चैतन्य
स्वभावनी श्रद्धा करी.–आ रीते ज्ञान अने श्रद्धामां धर्मनी क्रिया थई. हवे मात्र
चारित्रनो अल्प दोष रह्यो, तेने पण शुद्ध स्वभावमां एकाग्रता वडे टाळीने परमात्मा
थई जशे.