
सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थया पछी ज चारित्रदोष टळे ने परमात्मादशा थाय.
आत्मा छे तेने समजीने तेमां एकाग्रपणे वर्तवुं ते ज साचुं वीतरागी वर्तन छे. अने
शुद्ध आत्माने न समजतां विकारमां ज एकाग्रपणे वर्तवुं ते ऊंधुंं वर्तन छे. ज्यां
पोताना पूर्ण शुद्ध चैतन्यस्वभावने ज ज्ञाननुं ज्ञेय कर्युं अने तेनी श्रद्धा करी त्यां ज्ञान
अने श्रद्धानुं वर्तन तो सुधरी गयुं–अर्थात् ज्ञान अने श्रद्धा समयक् थया. चारित्रना
वर्तनमां अमुक विकार होय छतां ते विकारपरिणाम वखते पण श्रद्धा–ज्ञानने शुद्ध
स्वभाव तरफ वाळीने तेनुं वर्तन सुधारी शकाय छे; ने एम करवाथी ज धर्मनी
शरूआत थाय छे. पर्यायमां विकार होवा छतां ते ज वखते ते विकारने मुख्य न करतां
ते विकाररहित ध्रुव चैतन्यस्वभावने मुख्य करीने तेमां श्रद्धा–ज्ञानने वाळवा, ते ज
विधिवडे शुद्धात्मा जणाय छे ने अपूर्व कल्याणनी शरूआत थाय छे.
सवळुं थाय छे. चारित्रमां कांईक विपरीतता होवा छतां श्रद्धा–ज्ञान शुद्ध स्वभाव तरफ
वळीने शुद्ध आत्माने श्रद्धा–ज्ञानमां ल्ये छे. आ ज शुद्ध आत्माने जाणवानी विधि छे.
आ विधिथी जे शुद्धात्माने जाणे छे तेने ज आत्मानी शुद्धता प्रगटे छे.
थाय तेने आत्मानो आनंद प्रगटे छे ने रागद्वेषना अभावरूप वीतरागी समता होय छे
ते ज सामायिक छे. एवी ज सामायिकने भगवाने धर्म अने मोक्षनुं कारण कह्युं छे. तथा
ते जीव मिथ्यात्व–अविरति वगेरे पापथी पाछो फर्यो तेथी तेने प्रतिक्रमण पण थई गयुं.
आवी साची सामायिक अने साचुं प्रतिक्रमण शुद्ध आत्मानी समजण वगर कोई जीवने
होय नहीं.