Atmadharma magazine - Ank 248
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : जेठ : २४९०
मोज माणवामां वाछरडाने पण केवी होंश आवे छे! तो जे समजवाथी अनादिना
संसार बंधन छ्रूटीने मोक्षना परम आनंदनी प्राप्ति थाय–एवी चैतन्यस्वभावनी वात
ज्ञानी पासेथी सांभळतां क्या आत्मार्थी जीवने अंतरमां होंश ने उल्लास न आवे? अने
जेने अंतरमां सत् समजवानो उल्लास छे तेने अल्प काळमां मुक्ति थया विना रहे नहीं.
पहेलांं तो जीवने संसारभ्रमणमां मनुष्यभव अने सत्नुं श्रवण ज मळवुं बहु मोंघुं छे.
अने कवचित् सत्नुं श्रवण मळ्‌युं त्यारे पण जीवे अंतरमां विचार करीने, सत्नो उल्लास
लावीने, अंतरमां बेसार्युं नहि, तेथी ज संसारमां रखडयो. भाई, आ तने नथी
शोभतुं! आवा मोंघा अवसरे पण तुं आत्मस्वभावने नहि समज तो क्यारे समजीश?
अने ने समज्या वगर तारा भवभ्रमणनो छेडो क्यांथी आवशे? माटे अंदर उल्लास
लावीने सत्समागमे साची समजण करी ले.
जिज्ञासा
जीव अज्ञानने लीधे अनादिकाळथी अवतारमां बळदनी जेम दुःखी थई रह्यो छे,
छतां तेनाथी छूटवानी जिज्ञासा पण मूढ जीवने थती नथी. नाना गामडामां एक खेडुत
पूछतो हतो के ‘महाराज! आत्मा अवतारमां रझडे छे, ते रझडवानो अंत आवे ने
मुक्ति थाय एवुं कंईक बतावो! ’ आवो जिज्ञासानो प्रश्न पण कोईकने ज ऊठे छे.
आवा मोंघां टाणां फरी फरीने मळतां नथी, माटे जिज्ञासु थई, अंतरमां मेळवणी करीने
साचुं आत्मस्वरूप शुं छे ते समजवुं जोईए; केम के जे शुद्ध आत्माने ओळखे छे ते ज
शुद्धात्मानी प्राप्ति करे छे.
मूंझवण अने निराशाने खंखेरी नाखो
“मुमुक्षुपणुं जेम द्रढ थाय तेम करो.
हारवानो अथवा निराश थवानो कांई हेतुं नथी.
दुर्लभ योग जीवने प्राप्त थयो ते पछी थोडोक प्रमाद छोडी
देवामां जीवे मुंझावा जेवुं अथवा निराश थवा जेवुं कंई
ज नथी.”
श्रीमहराजचंद्र (८२९)