: जेठ : २४९० आत्मधर्म : २९ :
धार निर्जरा सार सार संवरपूर्वक जो हो है,
वही निर्जरा सार कही अविपाक निर्जरा सो है,
उदय भये फल देय निर्जर सो सविपाक कहावे,
तासों जीयका काज न सारि है सो सब व्यर्थ ही जावे.
[सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वडे संवरपूर्वक जे निर्जरा थाय छे ते अविपाक
निर्जरा ज साररूप छे; कर्मस्थिति पूरी थईने जे कर्म पाके छे ने फळ दईने खरी जाय छे
ते सविपाक निर्जरा वडे जीवनुं कार्य सरतुं नथी.]
(१०) लक भवन
चौदह राजु उतंग नभ, लोकपुरुष संठान,
तामें जीव अनादितें भरमत है विन ज्ञान
भरमत है विन ज्ञान लोकमें कभी न हित उपजाया,
पंच परावृत करते सम्यक् ज्ञान न पाया,
अब तु मोहकर्म को हरकर तज सब जगकी आशा,
जिनपद ध्याय लोकशिर उपर करले निज थिर वासा.
पुरुषाकार आ १४ राजु प्रमाण उंचो लोक छे. तेमां सम्यग्ज्ञान वगर अनादिथी
जीव अहींतहीं भमी रह्यो छे. हे जीव! मोहने हरीने अने जगतनी आशा तजीने हवे
तो तुं निजपदने ध्याव...ने लोकशिखर उपर तारो स्थिरवास कर. लोकशिखरे अनंता
सिद्धो स्थिर बिराजे छे त्यां तुं पण वास कर.
(१) बोधिदुर्लभ भावना
धन कन कंचन राजसुख सबहि सुलभकर जान,
दुर्लभ है संसारमें एक यथारथ ज्ञान.
एक ज्थारथ ज्ञान सु दुर्लभ है जगमें अधिकाना,
थावर त्रस दुर्लभ निगोदतें, नरतन संगति पाना,
कुल श्रावक रत्नत्रय दुर्लभ अरू षष्ठम गुनथाना,
सबतें दुर्लभ आतमज्ञानसु जो जगमांही प्रधाना.
[आ जगतमां भमता जीवने धन–कंचन के राजवैभव ए बधुंय सुलभ छे, एक
यथार्थ ज्ञान ज दुर्लभ छे. निगोदपर्यायमांथी नीकळीने त्रसपर्याय पामवी पण दुर्लभ छे,