Atmadharma magazine - Ank 249
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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अषाढः २४९०ः ७ः
सौथी पहेलुं काम
जे पोताना हितनो वांछक होय तेणे सौथी पहेलां तत्त्वनिर्णयरूप कार्य करवुं
योग्य छे. ‘चिद्रूप–ज्ञानानंद–स्वरूप हुं छुं, एनाथी भिन्न बीजा कोई भावो के द्रव्यो ते
मारुं स्वरूप नथी’–आवो तत्त्वनिर्णय स्वाधीनपणे थइ शके छे, तेने माटे कोई बीजानी
आधीनता करवी पडती नथी; अने ते तत्त्वनिर्णयनुं फळ महान छे.
आवी मनुष्यपर्याय पामीने पण जेओ तत्त्वनिर्णयनी दरकार नथी करता तेमने
हजी भवभ्रमणनो भय नथी लाग्यो....दुर्लभ मनुष्यपणामां मळेली बुद्धि तेओ व्यर्थ
गुमावी रह्या छे. डाह्या पुरुषोए पोतानी बुद्धि तत्त्वनिर्णयमां जोडवायोग्य छे. बीजुं
कार्य आवडे के न आवडे पण चैतन्यतत्त्वना निर्णयनुं कार्य तो सर्व उद्यमथी अवश्य
करवा योग्य छे.
शिवपुरीनो पथिक
हे शिवपुरीना पथिक! एटले के मोक्षना इच्छक! प्रथम तुं सम्यग्दर्शनादि भावने
जाण. ए भावरहित एकला द्रव्यलींगथी शुं सिद्धि छे?–कांइ सिद्धि नथी. माटे
सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावोने ज मोक्षनुं कारण जाणीने तेनी प्राप्तिनो उद्यम कर.
मोक्षपुरीनो पंथ श्री जिनेन्द्रदेवे प्रयत्नसाध्य कह्यो छे...माटे सर्व प्रयत्नने तुं
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां जोड.
आचार्य भगवान प्रेमथी मोक्षमार्गनो उत्साह जगाडतां कहे छे केः हे सत्
समजवानी जिज्ञासावाळा सत्पुरुष! तुं सांभळ! सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र भाव ते ज
मोक्षनो मार्ग छे. तेने भूलीने तें अत्यारसुधी मिथ्यात्व आदि भावोनुं ज सेवन कर्युं छे.
सम्यक्त्व आदि भावोने तें एक पळ पण सेव्या नथी...माटे हवे तो तेनी भावना कर.
रत्नत्रय–भावना तारी नौकाने शिवपुरीमां पहोंचाडी देशे.
(“रत्नसंग्रह”मांथीः छपाय छे.)