पहेलां स्वभावनी द्रष्टिथी संसारनो अभाव करे छे. जुओ, आ मंगळिकमां मुक्तिना
गोळधाणा वेंचाय छे के पहेले ज धडाके एम नक्की कर के हुं त्रिकाळ चैतन्यतत्त्व छुं.
मारी त्रिकाळ चीजमां संसार नथी. पर्यायमां रागादि होवा छतां ते मारा स्वरूपनी
चीज नथी. अहो! हुं मारा ज्ञानानंद समयसार भगवानने नमुं छुं, शरीरादिने के
विकारने नमतो नथी. मारो आत्मा नोकर्मथी भिन्न छे, जडकर्मथी तेमज विकारथी पण
रहित एवा मारा चैतन्यभगवान समयसारने ज हुं नमुं छुं–एम धर्मीनी द्रष्टिनुं मुख्य
वलण शुद्ध स्वभावमां रहे छे. देव–गुरु–शास्त्रनी भक्तिनो भाव आवे पण ते वखते
स्वभावनी द्रष्टि छूटती नथी. आचार्य भगवान मंगळिकमां कहे छे के अरे जीवो! जो
तमने संसार दुःखरूप लागतो होय ने ते टाळीने परमानंद मुक्तदशा प्राप्त करवी होय
तो पहेलां आवा स्वभावने नक्की करो. अनादिथी बहारमां ढळतो ने विकारनो तथा
परनो विनय करीने त्यांज नमतो तेने बदले हवे अंतरमां ढळुं छुं के अहो! हुं चिदानंद
आत्मा छुं, हवे हुं मारा अंतरस्वरूपमां ढळीने तेने ज नमुं छुं, हवे हुं परनो विनय
छोडीने चैतन्यनो विनय करुं छुं. जुओ, आम चैतन्यने ओळखीने तेनो महिमा अने
विनय करवो ते धर्मनुं महा मांगळिक छे.
चैतन्यनो सत्कार कर, चैतन्यनी रुचि करीने तेमां नम्यो तेणे मांगळिक कर्युं
करे छे, तेने छोडीने चिदानंद स्वभाव ज मने लाभदायक छे एम रुचि–महिमा करीने
तेमां नमवुं–ढळवुं–परिणमवुं ते अपूर्व मंगळिक छे. ज्यां आवा स्वभाव तरफना
सत्कारनो भाव प्रगटयो त्यां वच्चे शुभराग आवतां देव–गुरु–शास्त्र तरफना
सत्कारनो भाव आव्या विना रहेतो नथी. स्वभावनुं सन्मान छोडीने एकला परना ज
सन्मानमां जे अटकयो तेने तो वस्तुनुं भान नथी.
तेमां वलण करुं छुं. आम जे अंतरमां वळ्यो तेने परना सत्कार–बहुमाननो भाव
स्वभावने चूकीने न आवे.
समयसार केवो