अषाढः २४९०ः १७ः
दर्शन धारा पवित्रा
तीन लोक तिहुंकालमांही नहीं दर्शन सो सुखकारी,
सकल धरमको मूल यही, इस विन करनी दुःखकारी.
मोक्षमहलकी परथम सीढी, या विन ज्ञान–चरित्रा
सम्यक्ता न लहे, सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा.
‘दौल’ समझ सून चेत सयाने, काल वृथा मत खोवे,
यह नरभव फिर मिलन कठिन है जो सम्यक् नहि होवे.
(पं. श्री दौलतरामजी कृत–छहढाळा)
सम्यक्त्वनो महिमा करीने तेने धारण करवानी प्रेरणा आपतां छहढाळामां कवि
कहे छे केः त्रणलोक अने त्रणकाळमां सम्यग्दर्शन समान सुखकारी बीजुं कोई नथी;
बधा धर्मोनुं मूळ ते ज छे; तेना वगरनी बधी करणी दुःखरूप छे. आ सम्यग्दर्शन ते
मोक्षमहेलनुं पहेलुं पगथियुं छे, एना विना ज्ञान के चारित्र सम्यकता पामता नथी.
माटे हे भव्यो! आवा पवित्र सम्यग्दर्शनने धारण करो. हे सूज्ञ! दौलतरामजीनी आ
शिखामण सांभळीने तुं चेत...अने समय नकामो न गूमाव; जो आवा अवसरे
सम्यक्त्व प्राप्त न कर्युं तो फरीने आवो नरभव मळवो मूश्केल छे.
(सम्यग्दर्शन–पुस्तक त्रीजामांथी)
ज्ञानको उर आनो
धन समाज गज बाज राज तो काज न आवे
ज्ञान आपको रूप भये फिर अचल रहावे;
तास ज्ञानको कारन स्व–पर विवेक वखानो;
कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनो.
जो पूरव शिव गये, जाहिं, अब आगे जे हैं.
सो सब महिमा ज्ञानतनी मुनिनाथ कहे है;
(पं. श्री दौलतरामजी कृत छहढाळा)
सम्यग्ज्ञाननो महिमा करीने तेने धारण करवानी प्रेरणा आपतां छहढाळामां
कवि कहे छे केः धन, समाज, हाथी–घोडा, वैभव, के राज ए कांइ जीवने काम आवतुं
नथी; सम्यग्ज्ञान के जे निजस्वरूप छे ते प्रगट थतां अचलपणे जीवनी साथे रहे छे.
स्व–परनुं भेदज्ञान ते सम्यग्ज्ञाननुं कारण छे; हे भव्यो! करोडो उपाय वडे पण आवा
सम्यग्ज्ञानने अंतरमां प्रगट करो. पूर्वे जेओ मोक्ष पाम्या छे, वर्तमान पामे छे अने
भविष्यमां पामशे,–ए बधो सम्यग्ज्ञाननो ज महिमा छे–एम मुनिवरोए कह्युं छे.
(सम्यग्दर्शन–पुस्तक त्रीजामांथी)