अषाढः २४९०ः २पः
तरफ?–अनंत अनंत जन्म मरणनुं दुःख छे. तारा आत्मजीवननी लगाम तारा
हाथमां छे, सिद्धदशा तरफ ज प्रयाण करजे.
* तारो आत्मा रागवडे जणाय नहि अने ज्ञानवडे जणाया विना रहे नहि, एवुं
तारूं स्वरूप छे. एवी तारामां शक्तिओ पडी छे माटे तेना सामुं जो.
* बधाय पर परिणामोथी जुदुं रहीने ज्ञान जाणे छे.
* वस्तुनुं स्वरूप दरेक समये पोतानुं कार्य करी ज रह्युं छे, स्वरूप स्वीकारे ते
भगवान थाय.
जब जाण्यो निजरूपको, सब जाण्यो तब लोक,
जाण्यो नहि निजरूपको, सब जाण्यो सो फोक.
जेणे आत्मा जाण्यो, तेणे सर्व जाण्युं.
सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी, आराध्य, आराध्य! प्रभाव आणी.
अनाथ एकांत सनाथ थाशे, एना विना कोइ न बांह्य स्हाशे.
* हे भाई, आ अनंत दुःखमय संसारमां एक मात्र सर्वज्ञ देवनो धर्म ज जीवने
शरणरूप छे; एम जाणीने अंतरमां सर्वज्ञना धर्मनो अत्यंत महिमा लावीने
तेनी आराधना कर, आराधना कर! सर्वज्ञना धर्मनी आराधना करवाथी तारूं
एकांत अनाथपणुं टळीने तुं सनाथ थइश, तने तारो साचो नाथ मळशे. एना
सिवाय बीजुं कोइ तने सहारो करे तेम नथी.
* “सहजात्म स्वरूप चिदानंद”.
* तारा अंतरस्वरूपमां चैतन्यभावथी भरपूर आनंदसमुद्र हिलोळा मारतो ऊछळी
रह्यो छे, तेमां डुबकी मारीने पावन थइ जा. तारा आनंदसमुद्रने जोतां ज तने
आ संसारसमुद्रनी आकुळता मटी जशे. तुं संसारसमुद्रनो पार पामी जइश.
भगवान महावीर उपदेश करे छे–
अहो भव्य लोको! तमारूं सुख अंतरमां छे, बहारमां सुख नथी. संसार एकांत
अने अनंत दुःखरूप छे. शोकमय छे, एमां मधुरता अने मोह न करतां एनाथी निवृत्त
थाव, निवृत्त थाव; अहो लोको, संसाररूपी समुद्र अनंत अने अपार छे, तेनुं मूळ
अज्ञान छे. साचा ज्ञानवडे एनो पार पामवा पुरुषार्थनो उपयोग करो. उपयोग करो.
‘आ अस्थिर अने क्षणिक संसारमां अनेक प्रकारनां दुःख ज छे. हुं एवी करणी करुं के
जे करणीथी दुर्गति प्रत्ये न जउं. एनो विचार तत्त्वअभिलाषी करे छे. महावीरनो एक
समय मात्र पण संसारनो उपदेश नथी.
* एक ज वार तुं तारा स्वभावने आखा विश्वथी भिन्नपणे देख, तो फरीथी कदी तने
स्वरूपमां भ्रांति पडे नहि ने विश्वमां क्यांय ममत्व थाय नहि; आत्मस्वरूपनी महत्ता