माननारो खरेखर ते रागने आत्मस्वभावथी अभिन्न माने छे, तो जेने पोताथी
अभिन्न माने तेनाथी पोते जुदो केम पडे? अने रागथी जे जुदो न पडे ते मोक्ष क्यांथी
पामे? माटे हे भाई, तुं ऊंडी विचारणा करीने साचा साधनने शोध. पहेली वात ए छे
के कर्तानुं साधन निश्चयथी कर्ताथी जुदुं न होय. मोक्षनो कर्ता तुं, –तो ताराथी जुदुं
साधन न होय. ए साधन कयुं छे? रागादि बंधभावोने सर्वे तरफथी छेदनारी ने
समस्त चैतन्यभावने अंगीकार करनारी–एवी जे वीतरागीज्ञानपरिणति,
भगवतीप्रज्ञा ते बंधने छेदवामां तारुं साधन छे. ते साधनवडे ज बंधनने छेदवानी
क्रिया आत्मा करे छे.
* रागमां साधनने शोधीश मा.
* रागमां भेळसेळवाळुं ज्ञान तेमां पण साधनने शोधीश मा.
* शरीरथी पार, रागथी पार, एवा चैतन्यभावमां ज तारा साधनने शोधजे.
* शरीर तो चेतन वगरनुं छे, तेमां मोक्षसाधन नथी;
* राग पण चेतकस्वभावथी विरुद्धभाव छे; तेमांय मोक्षसाधन नथी.
* उपयोगस्वरूप आत्माने समस्त रागादिभावोथी भिन्न जाणनारी जे
थाय छे. माटे आवी प्रज्ञाछीणीने अंतरमां एकाग्र थइने एवी रीते
पटकवी के बंधभावो आत्माथी अत्यंत छूटा पडी जाय. आ ‘प्रज्ञा’ ने
भगवती कहीने आचार्यदेवे तेनो महिमा प्रसिद्ध कर्यो छे.
अभ्यास कर्यो पण कांइ कार्यसिद्धि तो न थइ;– तो आचार्यदेव कहे छे के भाई, साचा
साधनने (भगवती प्रज्ञारूप साधनने) तें जाण्युं नथी, ने बीजुं साधन तें मान्युं छे.
केम के आ भगवतीप्रज्ञा तो एवुं अमोघ साधन छे के तेनावडे बंध अने आत्मानी
भिन्नता जरूर थाय ज.