Atmadharma magazine - Ank 249
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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ः ३०ः अषाढः २४९०
रागने जे मोक्षनुं साधन माने छे ते रागमां ज मोक्षनुं साधन शोधे छे; पण
राग ते बंधसाधन छे, तेमां मोक्षनुं साधन क्यांथी मळशे? रागने मोक्षनुं साधन
माननारो खरेखर ते रागने आत्मस्वभावथी अभिन्न माने छे, तो जेने पोताथी
अभिन्न माने तेनाथी पोते जुदो केम पडे? अने रागथी जे जुदो न पडे ते मोक्ष क्यांथी
पामे? माटे हे भाई, तुं ऊंडी विचारणा करीने साचा साधनने शोध. पहेली वात ए छे
के कर्तानुं साधन निश्चयथी कर्ताथी जुदुं न होय. मोक्षनो कर्ता तुं, –तो ताराथी जुदुं
साधन न होय.
ए साधन कयुं छे? रागादि बंधभावोने सर्वे तरफथी छेदनारी ने
समस्त चैतन्यभावने अंगीकार करनारी–एवी जे वीतरागीज्ञानपरिणति,
भगवतीप्रज्ञा ते बंधने छेदवामां तारुं साधन छे. ते साधनवडे ज बंधनने छेदवानी
क्रिया आत्मा करे छे.
* शरीरमां साधनने शोधीश मा.
* रागमां साधनने शोधीश मा.
* रागमां भेळसेळवाळुं ज्ञान तेमां पण साधनने शोधीश मा.
* शरीरथी पार, रागथी पार, एवा चैतन्यभावमां ज तारा साधनने शोधजे.
* शरीर तो चेतन वगरनुं छे, तेमां मोक्षसाधन नथी;
* राग पण चेतकस्वभावथी विरुद्धभाव छे; तेमांय मोक्षसाधन नथी.
* उपयोगस्वरूप आत्माने समस्त रागादिभावोथी भिन्न जाणनारी जे
प्रज्ञा ते आत्मस्वभावथी अभिन्न वर्तती थकी, आत्माना मोक्षनुं साधन
थाय छे. माटे आवी प्रज्ञाछीणीने अंतरमां एकाग्र थइने एवी रीते
पटकवी के बंधभावो आत्माथी अत्यंत छूटा पडी जाय. आ ‘प्रज्ञा’ ने
भगवती कहीने आचार्यदेवे तेनो महिमा प्रसिद्ध कर्यो छे.
आ भगवतीप्रज्ञावडे आत्मा अने बंध जरूर जुदा पडे छे; आवुं साधन
अंतरमां करे अने कार्यसिद्धि न थाय–एम बने नहि. कोइ कहे छे के अमे घणा काळथी
अभ्यास कर्यो पण कांइ कार्यसिद्धि तो न थइ;– तो आचार्यदेव कहे छे के भाई, साचा
साधनने (भगवती प्रज्ञारूप साधनने) तें जाण्युं नथी, ने बीजुं साधन तें मान्युं छे.
केम के आ भगवतीप्रज्ञा तो एवुं अमोघ साधन छे के तेनावडे बंध अने आत्मानी
भिन्नता जरूर थाय ज.