Atmadharma magazine - Ank 250
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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ः १२ः श्रावणः २४९०
के शिखरजी आपणुं ज तीर्थधाम छे. ए कांई परदेश नथी. आ तो आपणा अनंता
तीर्थंकरोनो स्वदेश छे...आपणा धर्मपितानुं आ साधनाधाम छे...अनंता
तीर्थंकरोमुनिओ अहीं विचर्यां छे, ने आत्माना परमात्मपदने अहींथी साध्युं छे. वाह
धन्य छे आ भूमिने! आवी भूमिमां आराधक जीवोने तो आराधनानी उर्मिओ जागे
छे, ने प्रमोदपूर्वक चैतन्यनी चर्चावार्ता करे छे. मुनिओना धाममां आवीने मुनि जेवा
थइए, केवळज्ञान साधीए ने सिद्धरूप बनीए–एवी उत्तम भावनाओ जागे छे. आ
तीर्थभूमि पण यात्रिकने एवी ज प्रेरणा आपी रही छे के हे यात्रिक, हवे तो बस!
जीवनमां आत्मध्यान करीकरीने आत्माने साधवो ए ज करवानुं छे... ए ज आदर्श छे,
ए ज ध्येय छे. जो के आवी भावना साथे झडपथी पहाड उतरातो हतो, परंतु मुमुक्षुनुं
मन पहाड उतरवामां न हतुं...मुमुक्षुनुं मन तो आवी उत्तम भावनाओमां रोकायेलुं
हतुं....ने पहाड उतरवानुं काम तो पग करता हता. एकेएक यात्रिकना हृदय यात्राना
उल्लासथी उछळतां हता. पहाड चडती वखते गुरुदेवनो साथ हतो अने पहाड
उतरवामां पण गुरुदेव साथे होवाथी यात्रिकोने अनेरो आनंद आवतो हतो. सफळ
यात्रानी प्रसन्नता सौना मुख उपर छवायेली हती ने वचनद्वारा पण सौ हर्ष अने
भक्ति व्यक्त करता हता.
अहा! आ यात्रा तो वीतरागीभावनानो एक महोत्सव हतो. त्यां
तीर्थभक्तिनां तोरण बंधाया हता ने संयमभावनाना वाजां वागतां हतां. जीवनभर न
भूलाय एवी आ उत्तमयात्रा जेमना प्रतापे थइ तेमना उपकारने पण यात्रिको
भवोभवमां नहि भूले.–सदाय एनी हृदयसीतारमांथी झणकार ऊठया करशे के–
एवा संतनी चरणरजने मारे शिर चडावुं...
हुं सेवक छुं ए संतोनो मारे पण त्यां जावुं...
सोहे संमेदशिखरनां धाम...भावे करतां यात्रा... आजे उल्लसे आतमराम
यात्रानी पूर्णता प्रसंगे भक्तयात्रिकोना हृदयमां एवुं वेदन थाय छे के, हे
भगवंतो! हे अनंत जिनेन्द्रो! आपना आ पवित्र मुक्तिधामनी यात्रा करवानी
अमारी भावना आजे पूरी थई अमारा मनोरथ आज सफळ थया...भगवंतोनो आजे
भेटो थयो...हे गुरुदेव! आपनो आ जीवनमां परम उपकार छे...आजे आ महामंगळ
शाश्वत तीर्थधामनी यात्रा थई ते आत्माना हितनुं कारण छे.
आनंद–महोत्सवपूर्वक यात्रा करीने पहाड परथी उतरी रहेला गुरुदेव ज्यारे
रंगबेरंगी पुष्पझाडी वच्चेथी पसार थता त्यारे सुंदर पुष्पोथी झूलता पर्वत उपरनां वृक्षो