श्रावणः २४९०ः १३ः
एवा सुशोभित लागता के जाणे पर्वत गुरुदेवने पुष्पांजलि चडावीने आवकारतो
होय ने फरीने वेलावेला यात्रा करवा पधारजो–एवुं आमंत्रण आपतो होय. उन्नत
शिखरो ने गीच झाडीथी छवायेला धीरगंभीर उपशांत द्रश्यो ‘अहीं भगवान
विचर्या छे’ एम प्रतीत करावता हता. नमती सांजनुं उपशांत वातावरण,
मुनिओना ध्यानथी पावन थयेली भूमि, चारेकोर पहाडोनी वच्चे वननी नीरव
शांति..ए बधुं संतोनी ध्यानदशाने याद करावतुं हतुंः अहो, अमारा धर्मपिता अहीं
परमात्मध्यान करता. हे मारा नाथ! हुं तारो पुत्र, तारा पगले पगले तारी पासे
आवुं छुं. गुरुदेवने पण घणी प्रसन्नतापूर्वक आवी भावनाओ जागती हती. आम,
भगवंतोनी पवित्र भूमि जोतां जोतां, मुनिओनी ध्यान–दशाने याद करता करता,
ने आत्महितनी भावनाओ भावतां भावतां पर्वत परथी उतरता हता. लगभग
त्रणेक माईल पर श्वेतांबर तथा दिगंबर बंनेना विश्रामस्थान आवे छे, त्यां
यात्रिकोने भातुं पण अपाय छे...तथा बाजुमां वहेतुं एक झरणुं पर्वतनी प्राकृतिक
शोभामां वधारो करे छे. मंगळगीत गातां गातां लगभग बे वागे सौ नीचे आवी
पहोंच्या...हर्षभर्या जयघोषथी शिखरजीनी तळेटी गूंजी ऊठी...परोढिये बे वागे
सिद्धिधाममां गयेला ते बपोरे बे वागे नीचे आव्या...अहा, १२ कलाक आजनो
दिवस तो जाणे सिद्धभगवंतोना देशमां जई आव्या.
ज्ञानी महात्मानी ओळखाण...अने...सत्संगनी दुर्लभता
“आत्मदशाने पामी निर्द्वंद्वपणे यथाप्रारब्ध विचरे छे एवा महात्माओनो योग
जीवने दुर्लभ छे.
तेवो योग बन्ये जीवने ते पुरुषनी ओळखाण पडती नथी अने तथारूप
ओळखाण पडया विना ते महात्मा प्रत्ये द्रढआश्रय थतो नथी.
ज्यां सुधी द्रढआश्रय न थाय त्यांसुधी उपदेश परिणाम पामतो नथी.
उपदेश परिणम्या विना सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थती नथी. ने सम्यग्दर्शननी प्राप्ति
विना जन्मादि दुःखनी आत्यंतिक निवृत्ति बनवा योग्य नथी.
तेवो महात्मापुरुषोनो योग तो दुर्लभ छे–तेमां संशय नथी; पण
आत्मार्थीजीवोनो योग बनवो पण कठण छे.”
श्रीमद्राजचंद् (८१७)