Atmadharma magazine - Ank 250
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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‘षट्खंडागम’ (तथा धवल–महाधवल–जयधवल टीका) वगेरे पण
अध्यात्मग्रंथ छे; गुणस्थानो वगेरेमां आत्माना सूक्ष्म परिणामोनो तेमां बोध
कराव्यो छे. ए षट्खंडागमनी समाप्तिनो मोटो महोत्सव चतुर्विध संघे
अंकलेश्वरमां बे हजार वर्ष पहेलां श्रुतपंचमीना दिवसे कर्यो–ते महान दिवस आजे
छे. (जेठ सुद पांचम)
एवा सन्तो कहे छे के अरे जीव! ज्ञान दर्शन सुखथी तुं भरेलो...तेमां नजर
नथी करतो, ने बहारना विषयोमां नजर करीने कलेश भोगवे छे. बहारना
विषयो–के ज्यां तारुं अस्तित्व ज नथी त्यां तुं सुख माने छे, ने तारुं अस्तित्व–के
ज्यां अनंतसुख भरेलुं छे–तेनी सामे तुं जोतो नथी...पछी तने सुख कयांथी थाय?
बाह्य विषयोमां ज्यां तुं सुख माने छे त्यां खरेखर सुख नथी पण दुःख छे, कलेश
छे. तारा स्वभावमां नजर कर तो विषयोना कलेश वगरनुं अतीन्द्रिय–शांत सुख
भरेलुं छे.–एमां नथी कोई अंकुश के नथी कांइ विघ्न. तारे परमेश्वरने जोवा होय ने
परमेश्वर थवुं होय तो ते परमेश्वरनी शोध तारा आत्मामां ज कर. पूर्ण ज्ञान ने
पूर्ण सुखनुं अचिंत्य ऐश्वर्य तारामां ज भर्युं छे. स्वकीय सुखना अनुभवमां जेम
सिद्धोने परनुं कांइ प्रयोजन नथी, तेम तने पण तारा स्वकीय सुखना अनुभवमां
परथी कांइ प्रयोजन नथी, तेमां परनुं कांई ज अवलंबन नथी, परनी कांई ओथ के
टेको नथी. तारा स्वभावनी ज ओथे आत्मसुखनो अनुभव थाय छे–एवुं तारुं
अस्तित्व छे.
अरेरे, जीवो दुःख बांधवाना परिणाम घणा करे छे, पण दुःख भोगववा टाणे
राड पाडे छे, सुख भोगववा चाहे छे पण साचा सुखनो उपाय सेवता नथी. इन्द्रिय
सुखोमां ज सुख मानी, तेमां अटके छे,–पण तेमां तो दुःखनो ज अनुभव छे, किंचित्
सुख नथी, सुख शुं छे तेनी जीवने खबर पण नथी तो वेदन क्यांथी होय? विषयातीत
सुखनो एक अंश पण ज्यां वेदनमां आवे त्यां जगत आखाना विषयोना अवलंबननी
बुद्धि ऊडी जाय, सर्व विषयोथी रुचि विरक्त थई जाय.
भगवंत संतोए कहेलां श्रुत अतीन्द्रिय आत्मसुखनी रुचि करावीने बाह्य
विषयोथी विरक्ति करावे छे; आवा श्रुतने अने श्रुतधर सन्तोने नमस्कार हो.