ते ज खरी चेतना छे. अज्ञानभावे अनादिथी अशुद्ध वेदन करी रह्यो छे तेने बदले
‘हुं ज्ञाता छुं.’ एवी अंर्तद्रष्टि वडे शुद्धतानुं ने शांतिनुं वेदन पण पोते करी शके
ने रागना स्वादथी पण पार एवो जे शांत–अनाकुळस्वाद, तेनो पिंड आत्मा छे.
आ भाषामां के रेकोर्डिंगनी पट्टीमां शब्दो ऊतरे छे. कांई अरूपी आत्मा एमां नथी
तो ते क्यांथी आवे? सम्यग्दर्शनना प्रथम दरज्जे एटले के धर्मनी शरूआतना काळे
प्रथम आवो आत्मस्वाद आवे छे. एना महिमानी अपारता छे. जिनवाणीमाता
वखाण संभळावीने तेने सुवडावे छे...केमके पोताना वखाण गोठे छे एटले ते
सांभळतां सूई जाय छे. तेम जिज्ञासुने आत्माना निजगुणनी प्रीति छे. भगवान
गुणगान करीने आत्माने जगाडे छेः अरे जीव! तारो आ अचिंत्य महिमा देख!
आवा आत्माने द्रष्टिमां लइने पछी अंतरमां लीनताथी अतीन्द्रिय आनंदना झुले
पूर्णानंदना पंथे चडयो, ते मोक्षना पंथे वळ्यो. अहा, चैतन्यना अनुभव पासे
इंद्रना इन्द्रासन पण तूच्छ लागे छे. चक्रवर्तीना वैभव पण तरणां जेवा लागे छे.
कोइ पदार्थ जगतमां नथी. ज्यां आवो आत्मा स्वादमां आव्यो ने सम्यग्दर्शन थयुं
त्यां धर्मीजीव निजकार्यनो कर्ता थयो, ते ज धर्मनो खरो कार्यकर्ता छे. बहारनां कार्य
थाय छे. माटे साचो कार्यकर्ता ते छे के जेणे स्वानुभव वडे सम्यग्दर्शनरूप कार्य कर्युं.
परपरिणति परिणाम कारण जेह तजे रे...
उपशमरस तब होय निज शुद्ध ध्यान सजे रे...
मिथ्यातविषयनो त्याग, जिनवच अमीय सिंचे रे...