श्रावणः २४९०ः २९ः
छेदवा माटे छीणीनुं कार्य करी रही होय, जेनी एकेक पळ आत्माने सिद्धदशानी नजीक
लई जती होय ते जीवन धन्य छे, कृतकृत्य छे. एवुं कृतकृत्य जीवन संतना शरण वगर
बनतुं नथी. जे परम संतोना समागमे एवुं जीवन घडतर थाय छे ते संतोनो परम
आत्मा जयवंत हो, तेने परम भक्तिथी नमस्कार हो.
(८८) हुं ज्ञान छुं
मारा ज्ञानमां आखा जगतना सर्वे पदार्थो जणाय छे, तेथी हुं मारा ज्ञानथी ज
तृप्त छुं. ज्ञानथी बाह्य कोइ अन्य पदार्थनी मने अभिलाषा नथी; केम के बधुं ज मारा
ज्ञानमां आवी जाय छे. एवा तृप्त ज्ञानमां ज हुं छुं. हुं ज्ञान ज छुं; मारा ज्ञानमां ज
मारुं सर्वस्व छे.
(८९) दिव्यज्ञाननो महिमा
अहो सर्वज्ञ भगवान् अर्हंतो–सिद्धो! आपना परम महिमावंत दिव्यज्ञानमां एक
समय मात्र पण आप मने भूलता नथी, तो हुं मारा ज्ञानमां आपना दिव्यज्ञानने कदी
पण केम भूलुं? अने–सदाय मारा ज्ञानमां मने आपना दिव्यज्ञाननो ज महिमा जागृत रहे
पछी मारुं ज्ञान अन्य विषयोमां केम भमी शके? माटे–खरेखर आपना परमदिव्य ज्ञानमां
हुं एकलो ज नथी जणातो पण भेगाभेगी मारी मुक्तदशा पण जणाय छे.
(९०) अमूल्य जीवन
अहो, जगतना जीवो! अमूल्य मानव जीवन पामीने आत्मस्वरूपना दिव्य
महिमानुं एक क्षण पण चिंतवन करो. चैतन्यस्वरूपनी महत्ताने समजो. तेनी प्रतीत
करो, तेनुं ध्यान करो. सत्पुरुष पासेथी ज तमने तेनी प्राप्ति थशे–ए अमारी साक्षी छे.
(९१) अंतरमंथन
रे जीव, तारा परम सहज चैतन्यस्वरूपनुं अंतरमंथनकर...तेना महिमामां
एकाग्रतारूप ध्याननो अभ्यास कर...हे जीवो, बहारमां न भमो,...अंतर–मंथन करो,
अंतर–मंथन करो,... तमारुं सर्वस्व तमारा अंतरमां ज छे.
(९२) ज्ञानी महात्मानुं सहज परिणमन
अहो, अहो, ज्ञानी महात्मानुं सहज परिणमन! अज्ञानीने एम लागे छे के आ
ज्ञानी राग करी रह्या छे. पण खरेखर एम जराय नथी; ज्ञानी रागमय नथी पण रागथी
भिन्न ज्ञायकभावमय छे. ज्ञायक–स्वरूप ज तेमनुं सहजपरिणमन छे. ध्यानदशा–निर्विकल्प
ध्यानदशा वखते के आहारादि प्रसंग वखते ज्ञानीनुं एक ज्ञायकरूपे ज परिणमन छे. अहो
स्वभाव तारी दिव्यता! ज्ञानीनी आ रीतनी ओळखाण कोईक विरला ज करे छे.
(९३) मारुं स्वरूप
कदी रागद्वेषरूपे नहि थनारुं उदासीन ज्ञान जयवंत वर्तो! मारुं चैतन्यस्वरूप
निजरूपथी ज सहजपणे अष्टांग सम्यग्दर्शनरूप छे. ‘हुं’–एवा भावद्वारा जे अनुभवमां
आवे छे अने जे स्वसंवेदनथी प्रत्यक्ष छे एवो शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा ‘हुं’ ज छुं.