आत्मामां सतत आवी धून वर्तती होवाथी ज्यां संत–गुरुए तेना श्रद्धा–ज्ञानादिनो
उपाय बताव्यो के तरत तेना आत्मामां ते प्रणमी जाय छे. जेम धननो अर्थी मनुष्य
राजाने देखतां ज प्रसन्न थाय छे अने तेने विश्वास आवे छे के हवे मने धन मळशे
ने मारी दरिद्रता टळशे; तेम आत्मानो अर्थी मुमुक्षु जीव आत्मप्राप्तिनो उपाय
दर्शावनारा संतोने देखतां ज परम प्रसन्न थाय छे...तेनो आत्मा उल्लसी जाय छे के
अहा! मने मारा आत्मानी प्राप्ति करावनार संत मळ्या...हवे मारा संसारदुःख
टळशे ने मने मोक्षसुख मळशे. आवो उल्लास अने विश्वास लावीने, पछी संत–
धर्मात्मा जे रीते चैतन्यने साधवानुं कहे छे ते रीते समजीने पोते सर्व उद्यमथी
चैतन्यने जरूर साधे छे.
अनुभव न करे अने विकल्पोना वेदनमां अटकी रहे त्यां सुधी ते आत्माना गमे
तेवा विकल्पो कर्या करे तो पण तेथी शुं?–ते विकल्पोथी कांइ सिद्धि नथी, माटे ते
विकल्पोनी जाळने ओळंगीने ज्ञानस्वभावनो अनुभव करो, एम आचार्यदेव
उपदेश करे छे.
तेनुं अवलंबन छोड, तेनाथी जुदो था, ने ज्ञानस्वभावमां तारा उपयोगने
जोड...अंतर्मुख थइने अतीन्द्रिय आनंदरसना घूंटडा पी. आवी धर्मात्मानी अनुभवदशा
छे, ने आ ज ते अनुभवनो उपाय छे.
जगतना बीजा कोइ पदार्थमां जेने सुख भासतुं नथी, ते जीव चैतन्यस्वभावनो निर्णय
करीने ज्ञानने स्वसन्मुख करे छे, वच्चे आवता विकल्पोने ज्ञानथी भिन्न जाणीने
ओळंगी जाय छे. आ रीते विकल्पथी जुदो थइने ज्ञानस्वभावनी निर्विकल्प प्रतीत करे
छे ते “समयसार” छे, ते ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. आवी प्रतीत करवी ते
चार गतिना अनंत दुःखथी छूटकारानो उपाय छे.