Atmadharma magazine - Ank 250
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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श्रावणः २४९०ः पः
जे खरी धगशवाळो छे. खरो आत्मानो रंगी छे, ते जीव दुर्विकल्पोमां तो नथी
अटकतो अने स्वानुभव पहेलां वच्चे आवी पडेला भेद–विकल्पोमां पण ते अटकवा
नथी मागतो, तेने पण ओळंगीने स्वानुभवमां ज पहोंचवा मागे छे. कई रीते
स्वानुभवमां पहोंचे छे ते वात १४४मी गाथामां आचार्यदेवे अलौकिक ढबे बहु सरस
समजावी छे. ज्ञानस्वभाव तरफ ढळतां ढळतां, हजी ज्यां सुधी साक्षात् ज्ञानमां आव्यो
नथी त्यां सुधी वच्चे आवा विकल्पोनी जाळ आवशे, ते बतावीने आचार्यदेव कहे छे के
ते विकल्पजाळमां तुं गुंचवाइ न जईश, पण ज्ञानने तेनाथी जुदुं तारवीने ते
विकल्पजाळने ओळंगी जाजे, ज्ञानने अंतरमां लई जाजे,–आम करवाथी निर्विकल्प–
स्वानुभवनो अपूर्व आनंद तने अनुभवाशे.
अहा, द्रष्टि पलटातां बधुं पलटी जाय छे; उपयोगनो पलटो करवानो छे.
उपयोगनुं लक्ष बहारमां अटकवाथी संसार ऊभो थयो छे, उपयोगनुं लक्ष अंतरमां
वाळतां संसार टळीने मोक्ष थाय छे. जे जीव ज्ञानस्वभावमां अंतर्मुख थयो ने विकल्पथी
जुदो पडयो, तेने पछी अमुक प्रकारना रागना विकल्पो होय तो पण तेना ग्रहणनो
उत्साह नथी, तेना अवलंबननी बुद्धि नथी, उत्साह तो चैतन्य तरफ ज वळी गयो छे,
बुद्धिमां एटले के भावश्रुतज्ञानमां चैतन्यस्वभावनुं एकनुं ज अवलंबन छे–आवो
समकिती धर्मात्मा नयपक्षथी अतिक्रांत थयेलो शुद्ध आत्मा छे, ते ज ‘समयसार’ छे.
अहा! निर्विकल्प अनुभव वखते समकिती धर्मात्मा केवा होय छे, ते वात
भगवान केवळज्ञानी साथे सरखावीने आचार्यदेवे अलौकिक रीते समजावी छे. जे जे
जीवने सम्यग्दर्शन थाय तेने एवी दशा होय छे.
हे भव्य! कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण अने संबंध ए साते
विभक्तिना वर्णनद्वारा अमे तारा आत्माने परथी अत्यंत विभक्त बताव्यो, माटे हवे
तारा आत्माने बधाथी विभक्त अने पोतानी ज्ञानादि अनंतशक्तिओ साथे एकमेक
जाणीने तुं प्रसन्न था...स्वभावनो ज स्वामी थइने पर साथे संबंधना मोहने छोड!
*स्वभावनो कर्ता थइने पर साथेनी कर्ताबुद्धि छोड.
*स्वभावना ज कर्मरूप थईने बीजा कर्मनी बुद्धि छोड.
*स्वभावने ज साधन बनावीने अन्य साधननी आशा छोड.
*स्वभावने ज संप्रदान बनावीने निर्मळभावने दे.
*स्वभावने ज अपादान बनावीने तेमांथी निर्मळता ले.