: भादरवो : आत्मधर्म : ७ :
आत्मा भूले तो शुं करे? के पोते पोताना ज्ञान–आनंदनो अनुभव छोडीने
विकारने अनुभवे; ने रागद्वेषनो कर्ता थाय; पण पोताना भावनी भूमिकाथी बहार तो
ते कांई न करे. आत्मा रागद्वेष करे ने तेने कर्मो बंधाय–त्यां ते निमित्त–नैमितिक संबंध
देखीने तेमां अज्ञानी कर्ताकर्मपणुं मानी ल्ये छे. भाई, वस्तुस्वभावनो एवो नियम छे
के एकनुं कार्य बीजामां थाय नहि.
अरे, आवा वस्तुस्वभावने जे जाणता नथी ने परमा कर्तृत्व माने छे ते जीवो
बिचारा पुरुषार्थने हारी गया छे; निजस्वभावना वेदनमां तेमनो पुरुषार्थ वळतो नथी,
ने परिणति बहारमां ज भम्या करे छे. रागमांय भळवानो ज्ञाननो स्वभाव नथी.–
आवा स्वभावने भूलीने तुं तारा चैतन्य तेजने अज्ञानमां कां डुबाडी दे?
मिथ्याद्रष्टि जीवने संबोधीने आचार्यदेव करुणाथी कहे छे के अरे जीव! तुं तारा
आत्माने अकर्ता देख....तारुं ज्ञान परनुं कर्ता नथी–एवा ज्ञानने तुं देख. तारुं कर्तृत्व
तारा भावमां देख पण परमां न देख. चेतननुं कर्तृत्व चेतनमां होय, जडमां न होय.
चेतननुं जे कार्य होय ते चेतन ज होय.
आत्मामां जे मिथ्यात्वादि भावो थाय छे तेनो कर्ता ते आत्मा ज छे; पुद्गलनुं
तेमां कांई ज कर्तृत्व नथी. विकारमां ५० टका आत्मानुं कर्तृत्व अने प० टका कर्मनुं
कर्तृत्व–एम बे कर्ता नथी. जो बंने भेगा थईने करे तो तेनुं फळ पण बंने भोगवे,
परंतु अचेतन कर्मने तो कांई दुःख–सुखनो भोगवटो नथी.
वळी जीव जेम विकारभावने करे छे तेम जो जड कर्मने पण करे तो, चेतननुं
कार्य चेतन ज होय–ए न्याये, ते जडकर्मने चेतनपणानो प्रसंग आवी पडे.
अहीं अस्ति–नास्तिथी युक्तिवडे आचार्यदेव आत्मा अने जडनी स्पष्ट वहेंचणी
करीने, परस्पर कर्ताकर्मपणानो अत्यंत निषेध कर्यो छे. अज्ञानभावनी पण मर्यादा
एटली छे के ते पोताना विकारभावने करे पण जडमां तो कांई ज न करे.
जीव निजस्वभावने चूकीने पुद्गलकर्मना आश्रये परिणमे छे त्यारे ज
मिथ्यात्वादिभावो थाय छे, ने ते भावकर्मनो कर्ता जीव पोते छे. तथा त्यारे पुद्गलद्रव्य
जीवना विकारी परिणामनो आश्रय करीने (तेना निमित्ते) मिथ्यात्वादि कर्मरूपे
परिणमे छे, ते अचेतन छे, तेनो कर्ता अचेतन छे. जीवना भावनो कर्ता जीव, ने
अजीवना भावनो कर्ता अजीव.