: १० : आत्मधर्म : भादरवो :
१३. शुद्धतानुं साधन पण शुद्ध ज होय. अशुद्धता साधन थईने
शुद्धताने साधे एम खरेखर बनतुं नथी.
१४. खरेखर तो जे शुद्धरत्नत्रयपर्याय थई ते रूपे परिणमेलो आत्मा
ज तेनो कर्ता छे. पर्यायनो भेद पाडीने पूर्वपर्यायने
(–शुद्धपर्यायने) साधन कहेवुं तेमां पण भेदरूप व्यवहार छे.
पण बंनेनी जात एक छे, तेथी अभेद साधन–साध्य कहेवाय.
१५. आमां रागनी के परना साधननी तो वात क्यां रही? एकला
स्वद्रव्यनुं अभेद अवलंबन ते ज साध्यनी सिद्धिनो उपाय छे; ए ज
साधन छे, बीजुं कोई भिन्न साधन मोक्षने साधवा माटे नथी.
१६. धर्मात्माने स्वाश्रये जेटलो रत्नत्रयभाव प्रगट्यो तेटलुं
शुद्धसाधन छे.
१७. धर्मात्मा पोताना ज साधनद्वारा अंतरमां पोतानुं अवलोकन करे छे.
१८. शुद्धात्मामां प्रवृत्तिरूप जे चारित्र ते निश्चयमोक्षमार्ग छे.
सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान तो तेना पेटामां समाई ज गया.
१९. सम्यग्दर्शन उपरांत चैतन्यना आनंदमां मशगूल थई जवुं ते
मोक्षमार्ग छे.–त्यां एवोय विकल्प नथी के हुं आनंदमां मशगूल थाउं.
२०. छठ्ठागुणस्थानेय निश्चय सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान तो वर्ते ज
छे; पण शुद्धोपयोगी चारित्र नथी–ते अपेक्षाए त्यां हजी
व्यवहार मोक्षमार्ग कहेवाय; ने ज्यारे निर्विकल्प शुद्धोपयोगी
थईने परिणमे त्यारे रत्नत्रयनी अभेदता गणीने त्यां
निश्चयमोक्षमार्ग कह्यो.
२१. निश्चयसम्यग्दर्शननी शरूआत तो चोथागुणस्थानथी ज थई गई छे;
त्यां कांई एकलो व्यवहार नथी. एकला व्यवहारथी कांई मोक्षमार्ग
होतो नथी. निश्चयनो अंश होय त्यांज मोक्षमार्ग शरू थाय छे.
२२. चैतन्यमूर्ति आत्मा सुखथी भरेलो छे; तेने सुखना अभावनुं
कारण स्वभावनो प्रतिघात छे.
२३. चैतन्यनो स्वभाव ज्यां पूरो खीली जाय त्यां पूरुं सुख प्र्रगटी जाय छे.
२४. चैतन्यमां आनंदना अनुभवनो ज्यां अभाव छे त्यां तेने
ज्ञानदर्शन स्वभावमां प्रतिकूळतानो सद्भाव छे, आवरण छे.