: भादरवो : आत्मधर्म : ११ :
२५. अने ज्यां चैतन्यनो आनंद निर्विघ्नपणे खीली जाय छे त्यां
सामे प्रतिकूळतानो अभाव छे, आवरणनो नाश छे.
२६. ज्ञान–दर्शनपर्यायरूपे आत्मा स्वयमेव परिणमे छे, कांई ज्ञेयोने
अवलंबीने ते नथी परिणमतो... पछी केवळज्ञान हो, मतिज्ञान
हो के चक्षुदर्शन हो.
२७. अहीं तो ज्ञानदर्शनस्वभावने अने सुखने अविनाभावपणुं
बताव्युं. जे सर्वने जाणे–देखे छे तेने ज संपूर्ण सुख छे.
२८. जे सर्वने जाणतो–देखतो नथी तेने ज्ञानदर्शनस्वभाव पूरो
ऊघड्यो नथी ने तेने पूर्णानंदनो अनुभव नथी.
२९. आत्मानो ज्ञानस्वभाव होवा छतां तेणे पूरुं केम न जाण्युं? –ते
एम सूचवे छे के तेने कंईक प्रतिकूळता छे.
३०. ए प्रतिकूळता कांई बहारनी नथी, पण ज्ञानदर्शननो उपयोग
कोईक क्षेत्रमां अटकी गयो एटले के विषयप्रतिबद्धता थई ते ज
प्रतिकूळता छे, ते ज प्रतिबंध छे.
३१. ज्ञानस्वभावमां पूर्ण सामर्थ्य छे ने कार्य पूरुं नथी आवतुं तो ते
ज्ञान क्यांक जाणवामां अटकेलुं छे. ने ज्ञान विषयोमां अटक्युं
त्यां पूरुं सुख पण नथी.
३२. कारण जेवुं होय तेवुं ज कार्य होवुं जोईए; न होय तो तेमां
कांईक प्रतिबंध अने दुःख छे.
३३. धर्मात्मा स्वाश्रये पूर्णस्वभावनी प्रतीत करीने, अंतरमां ढळतो
पूर्णताने साधतो जाय छे, ने पराश्रयरूप प्रतिबंधने तोडतो
जाय छे. ज्ञानदर्शननो प्रतिबंध तूटतां आनंदनी पूर्णता थाय छे.
३४. पहेलांं अल्पज्ञदशामांय धर्मीए रागनो ने अल्पतानो आश्रय
छोडीने पूर्ण–अंशे स्वभावना आश्रये पूर्णतानी प्रतीत करी छे.
३५. धर्मात्माने अंतरमां चैतन्यसूर्य झबकी ऊठ्यो छे.
३६. अज्ञानीने एकलुं दुःख छे; परमात्माने पूरुं सुख छे; ने
साधकधर्मात्माने अमुक स्वाधीन अतीन्द्रियसुख प्रगट्युं छे,–ने
ते पूर्णताने साधी रह्या छे.
३७. जुओ, सुखनुं कारण बाह्यविषयो तो नहि, पण ज्ञाननुं
अंतर्मुखपरिणमन ते ज सुखनुं कारण छे.