: १२: आत्मधर्म : भादरवो:
३८. सम्यग्द्रष्टिए पोताना परमेश्वरपदने अंतरमां देख्युं छे, ने तेने
पर्यायमां प्रभुता खील्या वगर रहेती नथी.
३९. अंतरमां प्रभुताने देखी ने पर्यायमां प्रभुता न प्रगटे एम बने नहि.
४०. आजनो दिवस प्रभुता प्रगट करवा माटेनो छे. आजे तो
आनंदनो दिवस छे. आजना दिवसनी विशेषता छे....(अहीं
गुरुदेवे जे आनंदकारी वात करी तेथी सभामां हर्षानंदनुं
वातावरण छवाई गयुं हतुं.)
४१. ज्ञानीने पुण्यनी सामग्रीमां प्रीति नथी, ने प्रतिकूळ सामग्रीमां भय
नथी. परद्रव्यो जुदा छे ने परभावो हेय छे, ज्ञानीने तेमां रुचि नथी.
४२. धर्मात्माने लगनी लागी छे–ज्ञायकस्वभाव प्रत्ये.
४३. ज्ञानीने कदाच बहारमां चक्रवर्तीराजनो संयोग होय ने
अज्ञानीने कदाच बहारमां कांई परिग्रह न देखाय, तोपण
अंतरमां अज्ञानीने परिग्रहनो प्रेम छे, ने ज्ञानीने परिग्रहनी
प्रीति छूटी गई छे–केमके तेमां स्वप्नेय पोतानुं भोकतृत्व
भासतुं नथी, तेमां क््यांय सुखबुद्धि नथी. भोकतृत्व तो
स्वभावना आनंदनुं ज छे.
४४. ज्ञानी जाणे छे के आनंदनुं झरणुं मारा आत्मामां वहे छे. ए
आनंदना झरणामां कोई मलिनता नथी, परभाव नथी.
४५. ज्ञानी धर्मात्माने देव–गुरुनी अपूर्व ओळखाण थई छे तेथी
भक्ति–विनयना भावो पण तेने अपूर्व होय छे. छतां तेमां जे
रागांश छे ते रागनी महत्ता चैतन्य पासे भासती नथी.
४६. भगवान आत्मा तो चैतन्यरसथी भरपूर छे, तेने चूसतां
(अनुभवतां) आनंदनो स्वाद आवे छे.
४७. धर्मात्मा विकारने चूसता नथी, तेनो स्वाद लेता नथी, पण
ज्ञानवडे चैतन्यना आनंद रसने ज ते चूसे छे.
४८. आनंदने अने रागने एकमेकपणुं कदी नथी. आनंदने अने
ज्ञानने एक मेकपणुं छे.
४९. भगवान आत्मा आनंदनी मूर्ति, अने राग तो आकुळतानी
मूर्ति; तो जेणे अंतर्मुख थईने आनंदनो स्वाद चाख्यो ते
रागना स्वादनो भोक्ता केम थाय?