: भादरवो : आत्मधर्म : १३ :
५०. ज्ञानीने जेम जगतनी प्रतिकूळतानो भय नथी तेम जगतनी
अनुकूळतानी प्रीति पण नथी. जगतना पदार्थोनी साथे ज्यां
कर्ताभोक्तापणानो अभाव छे त्यां तेमां ईष्टअनिष्टपणुं क्यां
रह्युं? ने ज्यां ईष्टअनिष्टपणुं नथी त्यां रागद्वेष पण क्यां रह्या?
एटले ज्ञानीने रागद्वेषनुं कर्तृत्व पण ज्ञानमांथी नीकळी गयुं छे.
५१. चैतन्यरसनो रसगुल्लो तो आत्मा छे. भगवान्! दूधपाकमां ने
रसगुल्लामां तारो स्वाद नथी, तारो स्वाद ने आनंद तो तारा
चैतन्यरसमां भरेला छे. ए चैतन्यनुं लक्ष करावीने ज्ञानी तने
तारा चैतन्यना दूधपाक ने चैतन्यना रसगुल्ला जमाडे छे....
तेनो स्वाद ले. एना स्वादमां अपूर्व आनंद छे.
एवा आनंदानुभवी संतोने नमस्कार
जिनवचनने ग्रहीने
शुद्धरत्नत्रयरूप आत्मस्वभाव ते शील छे; एवा शीलनी आराधनावडे
सिद्धालयनी प्राप्ति थाय छे. जे धीर महात्माओ आवा शीलना धारक छे तेमनो जन्म
धन्य छे. आवा शीलधर्मनी प्राप्ति जिनवचनथी थाय छे. भगवंतकुंदकुंदस्वामी
शीलप्राभृतमां कहे छे के–
जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ताः तपोधना धीरा।
शीलसलिलेन स्नाताः ते सिद्धालयसुखं यांति।।३८।।
जिनवचनवडे जेणे सारने ग्रहण कर्यो छे अर्थात् जेणे जिनवचनना सारने
ग्रहण कर्यो छे,–सार शुं?–के शुद्ध आत्मा अथवा शुद्ध रत्नत्रय ते ज जिनवचननो सार
छे; एवो सार जेणे ग्रहण कर्यो छे, अने तेनुं ग्रहण करीने विषयोथी विरक्त थया छे,
एवा धीर तपोधन–के जेओ शीलरूपी पवित्र जळवडे स्नान करीने विशुद्ध थया छे तेओ
सिद्धालय–सुखने पामे छे.
जुओ, आ जिनवचनना ग्रहणनुं फळ! जिनवचन शुद्धात्मानुं ग्रहण करावे छे
ने विषयोथी विरक्ति करावे छे. स्व सन्मुख थईने जेणे श्रद्धामां, ज्ञानमां ने चारित्रमां
शुद्ध आत्मानुं ग्रहण कर्युं तेणे जिनवचनना सारनुं ग्रहण कर्युं. जिनवचनना ज्ञान वगर
सत्य सार हाथमां आवे नहि. पोताना निजस्वरूपनी प्राप्ति ते जिनवचननो सार छे, ते
ज शील, आराधना अने मोक्षमार्ग छे, एना वगरनुं बधुंय निस्सार छे. आ प्रकारे
जिनवचननो सार जे ग्रहण करे छे ते सिद्धालयना सुखने पामे छे. (प्रवचनमांथी)