: १४ : आत्मधर्म : भादरवो :
स्वभावना वेदनमां परभावना वेदननी अशक्यता
ज्ञानीधर्मात्मा विकारने निजभावपणे वेदे ए अशक्य छे.
जेम आर्यसज्जनने अभक्ष्यनुं भक्षण अशक्य छे, जेम
ब्रह्मचारीपुरुषने वेश्यानो संग अशक्य छे, जेम सतीस्त्रीने
परपुरुषनो संग अशक्य छे तेम भेदज्ञानी धर्मात्माने
एकत्वबुद्धिथी परभावनो संग ते पण अशक्य छे; ते तो असंग
एकत्वस्वभावनी भावनामां रत छे ने जगतथी उदासीन छे.
(समयसार–सर्वविशुद्ध ज्ञानअधिकार उपरना प्रवचनमांथी: भाद्रमास)
ज्ञानीनी विचिक्षणता
आत्मा चैतन्यस्वभावी पवित्र वस्तु छे, ते शरीरादि परद्रव्यथी पृथक छे. परनी
पृथकता छे, विभावोनी विपरीतता छे, ने स्वभावनुं अपार सामर्थ्य छे. आवा
आत्माने जे जाणे छे ते ज विचिक्षण ज्ञानी छे. आ सिवाय जगतनी बीजी विचिक्षणता
न आवडे के आवडे तेनी वात अहीं नथी. जगतनी विचिक्षणता ने डहापण कांई
आत्माने जाणवामां काम नथी आवतुं; ने जगतनी बहारनी विचिक्षणता न होय तेथी
कांई आत्माने जाणवानुं काम अटकतुं नथी. जीवने पोताना अस्तित्वनो स्वीकार यथार्थ
आववो जोईए. पोतानुं अस्तित्व विकारमां ज माने के परमां पोतानुं अस्तित्व माने–
तो तेनी बुद्धि विचिक्षण नथी पण स्थूळ छे–मिथ्या छे. चैतन्यने जगतथी जुदो
जाणनारा ज्ञानी ज सूक्ष्मबुद्धिवंत विचिक्षण छे. ज्ञानीनी अपूर्व विचिक्षणताने अज्ञानी
ओळखी शकतो नथी.
ज्ञानीने परभावना वेदननी अशक्यता
ज्ञानदर्शनथी भरेलो आनंदस्वभाव ज्यां अनुभवमां आव्यो त्यां परिणति
विकारथी जुदी पडी; हवे ते ज्ञानी विकल्पने स्वभावमां अपनावतो नथी. ते विकल्पने
निजस्वभावथी विपरीत समजे छे, एटले ते विकारने ए ज्ञानी निजभावपणे वेदे–ए
वात अशक्य छे. जेम आर्य सज्जनने मांसनो आहार ए अशक्य छे, तेम स्वभावने
माटे अभक्ष्य एवा जे परभावो–तेने निजस्वभावपणे ज्ञानी वेदे ए वस्तु अशक्य छे.
मांसनो पिंडलो एवुं जे आ शरीर तेने जे पोतानुं माने छे तेने परमार्थमां मासभक्षण
समान गण्युं छे. जेम ब्रह्मचारी पुरुषने वेश्यानो संग अशक्य छे, जेम सतस्त्रीने
परपुरुषनो संग अशक्य छे, तेम संतधर्मात्माने एकत्वबुद्धिथी परभावोनो संग ते पण
अशक्य छे. हुं ज्ञानभाव ते, ज्ञानभावमां मने परभावोनुं कर्तृत्व के भोकतृत्व नथी.