
निजस्वभावमां नीरत–लीन थाय छे ने विभावोथी ते विरत थाय छे, विरमे छे. ज्यारे
अज्ञानी तो निजस्वभावने भूलीने प्रकृतिना स्वभावमां एटले संयोगमां ने रागादि
परभावोमां ज लीनपणे आत्मबुद्धिथी वर्ते छे. तेथी ते मिथ्याद्रष्टि सदाय विकारनो ज
वेद्रक छे. स्वभावना आनंदनुं वेदन तेने नथी.
वेदनमां एकाकार वर्ततो थको, जाणे के हुं परने वेदुं छुं–देहनी वेदना वेदुं छुं–एम माने
छे, अने कदाच मंदरागथी सहन करे तो जाणे के हुं आ देहादिनी वेदनाने सहन करुं छुं–
एम माने छे, ज्ञानी तो जाणे छे के बहारना संयोगो मने स्पर्शता ज नथी, पछी तेनुं
वेदन मने केवुं?
एवुं ज चोथा गुणस्थानवर्ती जीवनुं समकित, स्वभावनी प्रतीतमां बंनेने कांई फेर
नथी. जेवो स्वभाव सिद्धप्रभुनी प्रतीतमां छे तेवो ज स्वभाव चोथा गुणस्थानीने
प्रतीतमां छे, तेमां रंचमात्र फेर नथी.–अहा, साधक निजस्वभावनी प्रतीतना जोरे
सिद्धभगवंतोनी पंक्तिमां बेठो छे, प्रतीतमां पूर्णचैतन्यस्वभावने स्थापीने ए
सिद्धपदने साधी रह्यो छे.
भरपूर आत्मा ज धर्मीनुं रहेठाण छे, तेना स्वादनो अनुभव ए ज धर्मीनो खोराक
छे. आचार्यदेव कहे छे के हे निपुण पुरुषो! ज्ञानमां विकारनुं वेदन नथी–एम नक्की
करीने तमे अज्ञानीपणाने छोडो, विकारना वेदनने छोडो ने शुद्ध ज्ञानना वेदनमां
उपयोगने जोडो. ए ज