: २४ : आत्मधर्म : भादरवो :
चैतन्यनी प्रभुतानुं पूर
आ भगवान चैतन्यसमुद्रमांथी अनंतगुणनी प्रभुतानुं पूर वहे छे. जेम आकाश
ए क्षेत्रस्वभावी वस्तु छे, तेना अस्तित्वनो विचार करो तो तेना अस्तित्वनो क्यांय
अंत नथी; आ लोक पछी अनंत अलोक, तेनो क्यांय छेडो नथी; आकाशना अपार
अस्तित्वनो क्यांय अंत नथी, अनंत अनंत प्रदेशो.... ज्यां जुओ त्यां आकाश छे छे ने
छे. तेम आत्मानो स्वभाव अनंत गुणना पूरथी भरपूर अस्तित्वरूप छे. एकेक गुणमां
अनंत अनंत पर्यायोरूप परिणमवानी ताकात छे; तेनो क्यांय अंत नथी; तेनी
प्रभुतानुं सामर्थ्य अपार छे. अनंतगुणनी प्रभुताना पूरथी आत्मा भरेलो छे....समये
समये प्रभुतानुं पूर पर्यायमां अनंतकाळ सुधी वह्या करे छतां एनी प्रभुता खूटे नहि
एवी ताकात आत्मामां छे. आवा आत्माने प्रतीतमां ल्ये त्यारे श्रद्धा साची थाय. जेम
क्षेत्रथी आकाशनुं माप नथी, तेम प्रभुताथी आत्मानुं माप नथी, अमाप प्रभुता
आत्मामां भरी छे. पाणीनुं मोटुं पूर देखे त्यां तेनी विशाळतानो महिमा आवे छे, पण
अंदर अनंतगुणनुं चैतन्यपूर वहे छे तेनो महिमा भासतो नथी. अनंत गुणनी
प्रभुतानो महिमा भूलीने संयोगनो महिमा आवी जाय तेने आत्माना खरा
अस्तित्वनी खबर नथी. अनंत अमाप आकाशनो क्षणमां पत्तो लई ल्ये एवी
चैतन्यनी एक पर्यायनी ताकात छे, ने एवी अनंत चैतन्यपर्यायोनुं पूर आत्मामांथी
वहे–एवा स्वभावसामर्थ्यथी ते भरेलो छे; जेनी प्रतीत करतां परम आनंद प्रगटे ने
जेमां लीन थतां केवळज्ञानना पूर वहे. रागनी ताकात नथी के आवा स्वभावने
प्रतीतमां ल्ये.
अहा, आ तो भगवानआत्मानुं ‘भागवत’ छे; चैतन्यभगवानना महिमानी
आ कथा छे. नियमसार वगेरेने ‘भागवत शास्त्र’ कह्यां छे; ते भगवानसन्तोए कहेलां
ने भगवान आत्मानुं स्वरूप प्रकाशनारां छे. भगवान, आ तारा आत्मानो
अंतरवैभव संतोए बताव्यो छे.
(भादरवा सुद १३ना प्रवचनमांथी)