Atmadharma magazine - Ank 251
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : भादरवो :
घोर उपसर्ग करनार प्रत्ये पण क्रोधनी वृत्ति ऊठती नथी ने
रत्नत्रयनी आराधनाथी जेओ डगता नथी. आवा वीतरागीधर्मोनो
महिमा सांभळतां जगतना समस्त जीवो हर्षित थशे; बधाय जीवोने
चैतन्यस्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन–ज्ञानसहित उत्तम मुनिधर्मनी
आकांक्षा थशे.
आत्मानो स्वभाव चेतना छे; अने ते चेतनानुं निर्विकाररूपे
परिणमवुं ते धर्म छे. जेटला अंशे चेतना निर्विकाररूप (रागरहित)
परिणमे तेटलो धर्म छे. ने तेटलो ज मोक्षमार्ग छे. रागरहित
चेतनापरिणाममां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र तथा उत्तमक्षमादिक बधा
कर्मो समाई जाय छे. आत्मा क्रोधादि कषाय भावोरूप न परिणमे ने
पोताना स्वभावमां स्थिर रहीने वीतरागभावरूप परिणमे–ते
उत्तमक्षमादि धर्म छे. पहेलांं अनंतानुबंधी क्रोधनो अभाव सम्यग्दर्शनवडे
थाय छे; ए रीते सम्यग्दर्शनवडे अनंतानुबंधी क्रोधनो अभाव कर्या
पहेलांं उत्तमक्षमादि धर्मनी आराधना अंशमात्र होई शके नहि. आ रीते
उत्तमक्षमादि धर्मोनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे (‘दंसणमूलो धम्मो’
कुंदकुंदस्वामीनुं सूत्र छे.)
प्रश्न:–उत्तमक्षमादि दशधर्म–ए तो मुनिओना धर्म छे, तेमां अमारे
श्रावकोने शुं?
उत्तर:–उत्तमक्षमादि दशधर्मोनी उत्कृष्ट आराधना मुनिवरोने होय
छे–ए खरूं, परंतु श्रावक धर्मात्माने पण ते धर्मनी आराधना अंशे होय
छे. शास्त्रमां कहे छे के जेटला मुनिओना धर्मो छे ते बधाय धर्मो
आंशिकरूपे श्रावकोने पण होय छे. सम्यग्दर्शनपूर्वक अनंतानुबंधी
क्रोधादिनो जेटलो अभाव थयो ने जेटलो वीतरागभाव प्रगट्यो तेटलो
धर्म छे, ने ते मोक्षनुं कारण छे. माटे श्रावके पण उत्तमक्षमादि धर्मोनुं
स्वरूप जाणीने तेनी आराधनानी भावना करवी.
उत्तमक्षमादि दशधर्मोनुं स्वरूप टूंकमां आ प्रमाणे छे–
(१) कोईपण जीवद्वारा वध, बंधन, निंदा वगेरे उपद्रव थता
छतां पोतानी चैतन्यभावनामां लीनताथी एवो वीतरागभाव रहेवो के
क्रोध परिणामनी उत्पत्ति ज न थाय एनुं नाम उत्तमक्षमा छे.
मोक्षमार्गना पथिक संतोने माटे आ उत्तमक्षमा साची सहायक छे अर्थात्
ते साधकनी सहचरी छे. क्रोधनी उत्पत्ति पोताना साधकभावमां बाधा
करनारी छे, एम समजीने तेने दूरथी ज छोडवो जोईए.