Atmadharma magazine - Ank 251
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : आत्मधर्म : ३ :
(२) देहादिथी भिन्न पोतानो आत्मा ज जगतमां सर्वोत्तम पदार्थ
छे एम जाणीने, देहाश्रित कोई वस्तुनो–रूप, बळ, जाति वगेरेनो के
ज्ञानादिनो पण मद न थवो,–एवा वीतरागभावने उत्तम मार्दवधर्म कहे छे.
[ए ध्यानमां राखवुं के एक वीतरागभावमां दशेय धर्मो समाई
जाय छे; अने वीतरागभाव वगर एक्केय धर्म होतो नथी.]
(३) परमार्थे आत्माना ज्ञानभावमां विकारनुं थवुं ते ज वक्रता
छे; आत्माना ज्ञाननी एवी आराधना प्रगटे के देह जवानो प्रसंग आवे
तोपण हृदयमां मायाचार के कपटभाव न थाय; अने पोताना रत्नत्रयमां
लागेला दोषो गुरुसमीपमां सरळताथी प्रगट करीने ते दोषोने दूर करवा
एनुं नाम उत्तम आर्जवधर्म छे.
(४) भेदज्ञाननी भावनाना बळथी देहादि परद्रव्यो प्रत्ये
स्पृहारूप मलिनता जेने नथी, अने रत्नत्रयनी पवित्र आराधनामां जे
सदाय तत्पर छे तेने उत्तम शौचधर्म छे.
(प) सत्रूप एवो जे ज्ञानस्वभाव तेने साधवामां जे तत्पर छे,
अने कदी वचन बोले तो ते वस्तुस्वभावने अनुसार तथा जिनवाणी
अनुसार स्वपरहित–कारी सत्य वचन ज बोले छे. असत्य बोलवानी
वृत्ति ज थती नथी; सत्य वस्तुस्वभावने जे जाणे छे, तेने ज आवा
सत्यधर्मनी आराधना होय छे.
(६) संसारमां मनुष्यत्व दुर्लभ छे परंतु संयमरूप मुनिदशा तो
उत्तरोत्तर अतीव दुर्लभ छे. सम्यग्द्रष्टिने पण संयमधर्मनी भावना रह्या करे
छे. चैतन्यमां लीनताथी एवो अकषायभाव प्रगट थाय के ईन्द्रियविषयो
प्रत्ये झुकाव ज न थाय, अने कोई पण प्राणीने दुःख देवानी वृत्ति ज न
थाय, समिति–गुप्तिनुं पालन होय, त्यां संयमधर्म होय छे.
(७) विषयकषायरूपी चोरोथी पोताना रत्नत्रयरूपी धनने
बचाववा माटे तपरूपी योद्धो रक्षक समान छे. गमे तेवो उपद्रव आवे तो
पण, पोताना चैतन्यना चिंतनथी च्यूत न थवुं ने विषयकषायोमां
उपयोग न जवो ते उत्तम तप छे. अहा, मुनिओना रत्नत्रयनी रक्षा
करनार आ तप परम आनंदनो दातार छे.