: ४ : आत्मधर्म : भादरवो :
(८) आत्मानो जे ज्ञानभाव छे ते परभावना त्यागस्वरूप ज
छे; ‘हुं शुद्ध चैतन्य आत्मा छुं, देहादि कंई पण मारुं नथी’–एम सर्वत्र
ममत्वना त्यागरूप परिणामथी चैतन्यमां लीन थईने मुनिराज उत्तम
त्यागधर्मनी आराधना करे छे. सम्यक् श्रुतनुं व्याख्यान करवुं तथा
बहुमानपूर्वक साधर्मीओने पुस्तक, स्थान वगेरे देवुं ते पण त्यागधर्मनो
प्रकार छे.
(९) ‘शुद्ध चैतन्य एक ज मारो छे, एनाथी भिन्न कंई पण मारुं
नथी’ एम जाणीने चैतन्यभावनाना बळथी देहादि समस्त परद्रव्यो प्रत्ये
ममत्व परिणामनो परित्याग ते ज उत्तम आकिंचन्यधर्म छे.
(१०) मारुं सुख मारा अतीन्द्रिय आत्मामां ज छे, स्त्री–
शरीरादि कोई पण बाह्यविषयोमां मारुं सुख नथी, एवी विशुद्धमतिना
बळथी एवा निर्विकार परिणाम थई जाय के स्त्री आदिने देखीने के
देवीद्वारा ललचाववा छतां पण विकारनी वृत्ति ज न थाय. स्त्रीने माता–
बहेन के पुत्रीवत निर्विकारभावना रहे, तेने ज साचा ब्रह्मचर्यधर्मनी
आराधना होय छे.
आ प्रमाणे उत्तमक्षमादि दशधर्मोनी उत्कृष्ट आराधना बतावी.
अहीं एम न समजवुं के आ धर्मोनी आराधना फक्त दशलक्षण पर्वना
दिवसोमां होय छे, परंतु सदैव आ धर्मोनी आराधना होय छे. आ
धर्मोनी आराधनारूप वीतराग भाव जेणे प्रगट कर्यो तेना आत्मामां
सदैव पर्युषण ज छे; क्षणे क्षणे ते धर्मनी उपासना करी ज रह्या छे.
आवा धर्मना उपासक संतमुनिवरोना चरणोमां
भक्ति सहित शतशत प्रणाम.
उत्तमक्षमादि वीतरागी धर्मोनुं स्वरूप दर्शावनार
जिनशासन जयवंत हो.
वीतरागधर्मनी परि–उपासनाना प्रेरक दशलक्षणी
पर्युषणपर्व जगतने मंगळरूप हो.