Atmadharma magazine - Ank 251
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : आत्मधर्म : ५ :
ज्ञानतत्त्वमां परनुं अकर्तृत्व
[श्रावण तथा भादरवा मास दरमियान समयसार–सर्वविशुद्धअधिकारना प्रवचनोमांथी]
‘विकारनो कर्ता कोण?’ अने धर्मात्माना श्रद्धा–ज्ञान केवां
होय–ए संबंधी सुंदर स्पष्टीकरण श्रावण–भादरवामां आवेल,
तेमांथी सारभूत भाग अहीं आप्यो छे. तेमां गुरुदेव कहे छे के जेम
मुनिओ लौकिक कार्योनो बोजो माथे राखता नथी, तेम ज्ञानी
धर्मात्मा व्यवहारना अवलंबननो बोजो राखता नथी एटले के आ
व्यवहारना अवलंबनथी मने लाभ थशे के आ व्यवहारना
अवलंबनमां मारे लांबो काळ रोकावुं पडशे–एवी भावना ज्ञानीने
नथी; मारा एक परमार्थ स्वभावमां ज हुं तत्पर छुं, तेना ज
अवलंबनमां होंश–उत्साह ने भावना छे.
धर्म केम थाय? ने धर्मात्माना श्रद्धा–ज्ञान केवां होय? ते अहीं समजावे छे.
मारो ज्ञानस्वभावी आत्मा चैतन्यसूर्य छे, तेमां परद्रव्यनो संबंध अंशमात्र
नथी; अरे, रागनो एक कणियो पण मारा स्वभावनो छे–एम ज्ञानी स्वप्नेय मानता
नथी. कोई पण प्रकारे ज्ञानी परद्रव्यने पोतानुं मानता नथी अने निजस्वभावमां
व्यवहारना रागना कणमात्रने पण स्वीकारता नथी. परना संबंधथी छूटो ने रागथीये
पार एवा सर्व प्रकारथी विशुद्ध ज्ञानस्वभावने एकने ज धर्मीजीव पोतापणे अनुभवे
छे. ते स्वानुभवमां व्यवहारनुं जराय अवलंबन नथी.
जेम जगतना व्यवहारमां ‘आ मारुं गाम, आ मारो देश’ एम बोलाय, त्यां
खरेखर कोई गामनो के देशनो स्वामी पोताने माने तो लोकमां ते मूर्ख छे. तेम
परद्रव्यने के परभावने जे जीव पोताना स्वभावना माने–ते जीव परमार्थमां मूर्ख छे.
ज्ञानी निजस्वभावमां परभावने जराय आदर आपता नथी. व्यवहारनो–पराश्रयनो
जराय आदर करवा जाय तो ज्ञानस्वभावनो अनादर थाय छे.
अरे भाई, तुं शुद्धज्ञानतत्त्व; तारे अने आस्रवने वळी एकता केवी? हुं तो
ज्ञानतत्त्व छुं, आस्रवतत्त्व ज्ञानथी जुदुं छे, ते हुं नथी–आम ज्ञानी बंनेनो भेद जाणे छे;
आवो भेद जाणीने ज्ञानस्वभावनो आश्रय अने उपासना करवी ते धर्म छे.