
तेमांथी सारभूत भाग अहीं आप्यो छे. तेमां गुरुदेव कहे छे के जेम
मुनिओ लौकिक कार्योनो बोजो माथे राखता नथी, तेम ज्ञानी
धर्मात्मा व्यवहारना अवलंबननो बोजो राखता नथी एटले के आ
व्यवहारना अवलंबनथी मने लाभ थशे के आ व्यवहारना
अवलंबनमां मारे लांबो काळ रोकावुं पडशे–एवी भावना ज्ञानीने
नथी; मारा एक परमार्थ स्वभावमां ज हुं तत्पर छुं, तेना ज
अवलंबनमां होंश–उत्साह ने भावना छे.
मारो ज्ञानस्वभावी आत्मा चैतन्यसूर्य छे, तेमां परद्रव्यनो संबंध अंशमात्र
नथी. कोई पण प्रकारे ज्ञानी परद्रव्यने पोतानुं मानता नथी अने निजस्वभावमां
व्यवहारना रागना कणमात्रने पण स्वीकारता नथी. परना संबंधथी छूटो ने रागथीये
पार एवा सर्व प्रकारथी विशुद्ध ज्ञानस्वभावने एकने ज धर्मीजीव पोतापणे अनुभवे
छे. ते स्वानुभवमां व्यवहारनुं जराय अवलंबन नथी.
परद्रव्यने के परभावने जे जीव पोताना स्वभावना माने–ते जीव परमार्थमां मूर्ख छे.
ज्ञानी निजस्वभावमां परभावने जराय आदर आपता नथी. व्यवहारनो–पराश्रयनो
जराय आदर करवा जाय तो ज्ञानस्वभावनो अनादर थाय छे.
आवो भेद जाणीने ज्ञानस्वभावनो आश्रय अने उपासना करवी ते धर्म छे.