Atmadharma magazine - Ank 252
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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ः १०ः आसोः २४९०
ओळखाव्या छे. भगवाने कहेलां आ भिन्न लक्षणोने जाणीने, स्वद्रव्यने एकने ज
अवलंबतो थको जीव भेदविज्ञानी थाय छे, अने निजात्मद्रव्यमां लीन थइने
वीतरागभाव वडे मोक्षमार्ग साधीने परमसुखनो भोक्ता थाय छे. भेदज्ञानरूप
सम्यक्मार्गनुं आ फळ छे.
ज्ञानस्वभाव
भाई, तुं जीव; तारो स्वभाव ज्ञान; ज्ञाननी पूर्णता एटले सर्वज्ञता; एमां राग
के शरीर क्यां आव्या? आवा सर्वज्ञस्वभावनो निर्णय तो कर. ए निर्णयमां
वीतरागता लाववानुं जोर छे. ज्यां निर्णय थयो के हुं सर्वज्ञस्वभावी ज्ञायक छुं’–त्यां
रागमांथीये कर्तृत्व हटी जाय छे तोपछी शरीरादि अचेतनमां तो एकत्वबुद्धि क्यांथी
रहे? ने जेनाथी भिन्नता जाणी तेमां लीनता पण केम थाय?–न ज थाय; एटले
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करतां स्वद्रव्यमां एकमां ज लीन थवानुं रह्युं.–ए ज मुमुक्षुनो
मार्ग छे, ने संतोए ए मार्ग प्रसिद्ध कर्यो छे.
सात पदार्थो
प्रथम तो, स्वपरनुं जेने भेदज्ञान नथी, सम्यक् मार्गनी जेने प्रसिद्धि नथी एवो
संसारी जीव अनादिथी बंधननी उपाधिने वश थयो छे, ने तेना निमित्ते ते जीव
स्निग्धपरिणाम एटले के राग–द्वेष–मोहरूप चीकणा भाव करे छे. जीव पोते एवा
भावरूपे कर्मना निमित्ते परिणमे छे. ने ते विकारी भावोना निमित्ते फरी फरी कर्मो
बंधाय छे. संसारभ्रमणमां जीव–अजीवनुं निमित्त नैमित्तिकपणुं बताववुं छे. अने
संसार अनादिनिधन तथा अनादिसांत होय छे, तेमां ‘अनादिसांत’ कहेतां संवर–
निर्जरा तत्त्वो गर्भितपणे आवी गया, केम के संवर–निर्जरा वडे ज संसारनो अंत थाय
छे. आम जीव अने अजीवद्रव्योनुं भिन्नभिन्न स्वरूप होवा छतां तेमना परिणामना
परस्पर निमित्तथी पुण्य–पाप वगेरे पदार्थो उत्पन्न थाय छे, ते साततत्त्वोनुं स्वरूप
जाणवुं ते मोक्षमार्गनी सिद्धि माटे जरूरनुं छे. क्या तत्त्वो हेय, क्या तत्त्वो उपादेय, क्या
तत्त्वो मोक्षनुं कारण, क्या तत्त्वो संसारनुं कारण ए बराबर ओळखवुं जोइए.
भाव पुण्य–पाप जीवनुं कार्य छे, पण ते उपादेय नथी
शुभ परिणामरूप भाव ते पुण्य अने अशुभपरिणामरूप भाव ते पाप, ते
पुण्य–पापने जीव पोते रचे छे, निश्चयथी जीव पोते ज कर्ता थइने ते पुण्य पापने
रचे छे एटले ते जीवनुं कार्य छे. ने तेना निमित्ते बंधातुं जे शुभाशुभकर्म ते पुण्य–
पापना कर्ता