कुदेवादिना सेवनमां तो विषयकषायनुं पोषण छे, तेथी तेने तो पुण्यारुंवना कारणमां
गण्युं नथी.
विनय वगेरेनो शुभभाव छे ते प्रशस्तराग छे ने ते ज पुण्यारुंवनुं कारण छे. मोक्षनुं
कारण स्वालंबी भाव छे. बंधनुं कारण परालंबी भाव छे.
तेमां रागनी मंदता छे. पंचपरमेष्ठी प्रशस्त छे, सुंदर छे. तेमने अनुसरवामां रसिकपणुं
संसारसंबंधी राग स्त्री–पुत्र–लक्ष्मी–शरीर वगेरे संबंधी राग ते अप्रशस्त छे.
प्रशस्तराग भक्तिप्रधान अज्ञानीने होय छे, तेमज उपरनी भूमिकामां स्थिति न होय
कषायोमां तो जती नथी. कुदेवादि अस्थाननो राग पण तेमने थतो नथी, तेमने
पंचपरमेष्ठी प्रत्येनी भक्ति वगेरेनो प्रशस्त राग होय छे. ते ज्ञानीनो प्रशस्तराग पण
वर्ते छे ते संवर–निर्जरा मोक्षनुं कारण छे.
तत्त्व–स्वरूप समजीने पोतामां भेदज्ञान प्रगट करे त्यारे तेने ज्ञानीनो मार्ग प्रसिद्ध थयो
कहेवाय. एक रत्न पोतानी पासे ज प्रगट पडयुं होय, पण जेनी आंखो बंध छे, जे अंध
देखतो नथी त्यां सुधी तेने तो ते अप्रसिद्ध ज छे, आंख खोलीने जुए त्यारे ते प्रसिद्ध
थयुं कहेवाय. तेम सर्वज्ञ भगवाने कहेलां नवतत्त्वो प्रगट–प्रसिद्ध छे, पण जे जीव पोते
ज्ञानचक्षु खोलीने यथार्थ तत्त्वोने जाणे त्यारे भगवानना मार्गनी प्रसिद्धि थइ कहेवाय.
अजीवथी भिन्न चैतन्यतत्त्व पोताना अंतरमां ज छे, ने साततत्त्वोनुं परिणमन पण
निर्जरा प्रगटे ने मोक्षनी प्रसिद्धि थाय. आ माटे तत्त्वोनुं स्वरूप बराबर जाणवुं जोइए.