Atmadharma magazine - Ank 252
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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आसोः २४९०ः १३ः
सं व र
भाई, आस्रव शुं, संवर शुं, ते बधा तत्त्वोने जेम
छे तेम भिन्नभिन्न ओळख तो तने सम्यग्ज्ञानना
मार्गनी प्रसिद्धि थाय. आस्रवनो मार्ग बहिर्मुख छे ने
संवरनो मार्ग अंतर्मुख छे–आवा भिन्नभिन्न मार्गने जे
जीव ओळखतो नथी ते भ्रमथी संवरना मार्गने बदले
आस्रवना मार्गे चडी जाय छे, आस्रवना कारणरूप शुभ
रागने संवरना कारणरूप माने छे,–तेने संवर क्यांथी
प्रगटे? संवरनो खरो मार्ग एटले के संवरनुं साचुं
स्वरूप ओळखे तो संवर प्रगटे.
(पंचास्तिकाय उपरना प्रवचनोमांथी)
नवपदार्थमां संवर पदार्थ शुं छे तेनी आ वात छे. संवर कहो के धर्म कहो. जीवनी
चैतन्यपरिणति एवी निर्मळ थाय के सर्वे पदार्थो प्रत्ये समभाव रहे, राग–द्वेष–
मोहभाव न थाय, संयोग–वियोगमां राग–द्वेष न थाय, आवी विशुद्ध परिणति ते
जीवनो भावसंवर छे. आवा भावसंवरने पामीने शुभाशुभकर्मनो आस्रव अटकी जाय
ते द्रव्यसंवर छे. देवगुरु प्रत्येनी परम भक्ति, साधर्मीनो प्रेम वगेरे शुभभाव
ज्ञानीधर्मात्माने होय छे, ज्ञानी तेने शुभआस्रवनुं कारण समजे छे; ने संवरनुं कारण तो
राग–द्वेष–मोह विनाना विशुद्ध चैतन्यपरिणाम छे–एम जाणे छे संवरनो प्रारंभ
सम्यग्दर्शनथी थाय छे. सम्यग्दर्शन थतां ज मिथ्यात्वादि भावो टळी जाय छे अने
मिथ्यात्वकृत ४१ कर्मप्रकृतिनो आस्रव तो थतो ज नथी. सम्यग्द्रष्टिने समस्त परथी
भिन्न चैतन्यनुं भान थयुं छे एटले कोई पण परद्रव्य इष्ट–अनिष्टपणे भासतुं नथी,
एटले इष्ट–अनिष्टपणानी बुद्धिपूर्वक तेने कोइ पण पर द्रव्य प्रत्ये राग द्वेष थता नथी;
एटले मिथ्यात्वसहितना अनंतानुबंधी राग–द्वेषनो तो तेने संवर थइ गयो छे.
रागपरिणति ने वीतरागपरिणति बंनेनी धारा जुदी पडी गइ छे.