मिथ्यात्वादिनो आस्रव पण थया करे छे. सम्यग्दर्शन वगर संवरधर्म थाय नहि.
संवर विना कर्मबंध अटके नहि अने कर्मबंधन अटकया वगर मोक्ष थाय नहि. अहीं
सम्यग्दर्शन उपरांत मुनिना विशेष संवरनी वात करी छेः मुनिदशामां तो
चैतन्यपरिणति एवी निर्मळ थई गई छे के तेमां राग–द्वेषरूप मलिनता थती नथी;
कोई पूजे के कोई निंदे–तेमां तेमने समभाव छे, जीवन के मरण प्रत्ये जेने समभाव
छे, आवी समभावरूप वीतराग परिणतिवडे शुभाशुभ कर्मनो आस्रव थतो नथी.
पण संवर ज थाय छे. सम्यग्द्रष्टि–गृहस्थने जेटला राग–द्वेष छे तेटलो आस्रव छे;
पण ते राग–द्वेष वखते य सम्यग्दर्शनरूपी संवर तो चालु ज छे एटले मिथ्यात्वादि
४१ प्रकृतिनो आस्रव तो तेने थतो ज नथी. सम्यग्दर्शन पण अपूर्व संवर दशा छे;
अने चारित्रदशा तो घणी निर्मळ छे, तेमां घणो संवर छे.
प्रभुताथी भरेलो हुं पण जगतना कोइ जीव–अजीवनी अवस्थानो कर्ता नथी. परमां
मारुं कर्तृत्व नथी तेम ते मने इष्ट के अनिष्ट पण नथी. ज्यां आवो सम्यक् अभिप्राय
थयो त्यां राग–द्वेषनुं जोर तूटी गयुं. जेने इष्ट के हितकारी माने तेना प्रत्ये
ममत्वबुद्धिथी राग थया वगर रहे नहि, अने जेने अनिष्ट के दुःखकारी माने तेना प्रत्ये
द्वेषबुद्धिथी द्वेष थया वगर रहे नहि, आ रीते परद्रव्यमां इष्ट–अनिष्टपणानी बुद्धि ते
रागद्वेषनुं मूळ छे. ज्यां एवी मिथ्याबुद्धि पडी होय त्यां राग–द्वेष टळे नहि ने
समभावरूप संवर थाय नहि. माटे संवरनो पहेलो मार्ग ए छे के यथार्थ भेदज्ञान करवुं.
पछी स्वरूपमां स्थिरता वडे शुद्धोपयोग थतां संवरनी पूर्णता थाय छे. शुद्धोपयोग तो
साक्षात् निरारुंव छे. सम्यग्दर्शन थतां घणो संवर प्रगटयो होवा छतां हजी जेटला
शुभाशुभ परिणाम छे तेटलो आस्रव पण छे; पण ते आस्रवने चैतन्यस्वभावथी
भिन्नपणे जाणता थका ज्ञानी तेमां तन्मय थइने परिणमता नथी, माटे श्रद्धाअपेक्षाए
तो तेने पण निरारुंवपणुं ज छे.
शुभरागने संवरना कारण तरीके माने छे; आस्रवनो मार्ग बहिर्मुख छे ने संवरनो
मार्ग अंतर्मुख छे,–एवा भिन्नभिन्न मार्गने अज्ञानी ओळखतो नथी, एटले भ्रमथी
संवरना मार्गने