संवरना मार्गमां छुं–तेने आस्रव कयांथी अटके? ने संवर कयांथी प्रगटे?
प्रगटतां कर्मनो आस्रव पण अटकी जाय छे, ते द्रव्यसंवर छे. अंदरनी निर्मळदशाने जे
ओळखतो नथी ते बहारथी संवरनुं माप करवा जाय छे. बहारमां संयोगो छोडीने बेसे
ने शुभक्रियाओमां उपयोगने जोडे पण भेदज्ञान वडे भावशुद्धि न करे, तो भावशुद्धि
वगर संवर थाय नहि. भावशुद्धि वगर भावहिंसा छूटे नहि, केमके मिथ्यात्वभावनुं
सेवन ते ज मोटी आत्महिंसा छे. ने ते समस्तकर्मना आस्रवनुं मूळ छे. ज्यां सम्यक्
आत्मभान थयुं, विकार अने चैतन्यस्वभावनुं भेदज्ञान थयुं त्यां ते भेदज्ञानना बळे
समस्त आस्रवनुं मूळ छेदाइ गयुं...ने अपूर्व संवरनी शरूआत थइ–आनुं नाम धर्म ने
आ ज मोक्षनो मार्ग.
होय ते रागवडे सम्यग्दर्शननो नाश पण थतो नथी. सम्यग्दर्शन थया पछी राग–द्वेष
थाय ज नहि–एवो नियम होय तो तो चोथा गुणस्थान अने तेरमा गुणस्थान वच्चे
कोइ आंतरो ज न रहे; सम्यग्दर्शन थतां वेंत ज वीतरागता ने केवळज्ञान थइ जाय.–
पण एवो नियम नथी. सम्यग्द्रष्टिने अमुक राग हो तोपण तेने राग वखते तेनाथी
जुदी ज सम्यग्दर्शनपरिणतिनी धारा अखंडपणे वही रही छे; एटले रागकृत आस्रव
अने सम्यग्दर्शनकृत संवर ए बंने तेने एक साथे ज वर्ते छे. राग होय ते चारित्रदोष
छे, अने राग साथे तन्मयपरिणति थई जाय तो श्रद्धानो दोष छे. श्रद्धानो ज्यां दोष
होय त्यां तो संवरधर्म अंशमात्र नथी होतो. चारित्रनो दोष (अस्थिरताना रागद्वेष)
होय पण जो श्रद्धा साची वर्तती होय तो त्यां थोडोक आस्रव ने घणो संवर छे.–आवा
यथार्थ ज्ञानवडे मार्गनी प्रसिद्धि थाय छे. जेने तत्त्वनिर्णयमां भूल होय तेने मार्ग
प्रसिद्ध थतो नथी.
न कह्युं पण शुभपरिणामना अभावने संवरनुं कारण कह्युं. शुभपरिणाम तो पुण्यकर्मना
आस्रवनुं कारण छे. आस्रवना कारणने जे संवरनुं कारण माने तेने खरेखर संवर थतो
नथी, तेमज