Atmadharma magazine - Ank 252
(Year 21 - Vir Nirvana Samvat 2490, A.D. 1964)
(Devanagari transliteration).

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आसोः २४९०ः १७ः
नि र्ज रा
शुभपरिणाममां उपयोगने जोडीने तेने जे
लाभनुं (संवर–निर्जरानुं) कारण माने, तेनो
उपयोग तो रागमां एकाग्रताथी मलिन थइ रह्यो
छे, अने ते तो आस्रवनुं ज कारण छे; तेने
ज्ञानीना मार्गनी प्रसिद्धि थती नथी. ज्ञानीना
अंतरमां तो सम्यग्दर्शनरूपी दीवडा वडे मार्गनी
प्रसिद्धि थई छे. तेनो उपयोग रागथी जुदो पडी
गयो छे एटले उपयोगमां शुद्धता प्रगटी छे, ते
शुद्धता संवर–निर्जरानुं कारण छे.
[पंचास्तिकाय उपरना प्रवचनमांथी]
जगतमां अनंत आत्मा; एकेक आत्मामां अनंत गुणो; अने एकेक गुणमां
अनंत ताकात. आवो महिमावंत आत्मस्वभाव तेमां उपयोगने रोकतां कर्म रोकाय छे,
ने तेमां उपयोगने लीन करीने विशेष शुद्धता करतां अशुद्धता छूटी जाय छे ने कर्मो
निर्जरी जाय छे. आ रीते निर्जरामां त्रण प्रकार आव्या (१) शुद्धतानी वृद्धि (२)
अशुद्धतानी हानी अने (३) कर्मोनुं खरवुं. पहेला बंने प्रकार भावनिर्जरारूप छे, तेमां
एक अस्तिरूप ने बीजामां नास्तिरूप प्रकार छे; ने त्रीजो प्रकार ते द्रव्यनिर्जरा छे ते
आत्माथी भिन्न, जडमां छे.
आवी निर्जरा ते मोक्षनो हेतु छे. आवी निर्जरा संवरपूर्वक थाय छे; अने संवर
भेदज्ञानपूर्वक थाय छे. जेने भेदज्ञान नथी, जेने शुद्धआत्मानो अनुभव नथी तेने संवर,
निर्जरा के मोक्ष थतो नथी. जेणे द्रव्यकर्मथी भिन्न आत्माने जाण्यो नथी. जेणे अशुद्ध
भावोथी भिन्न आत्मस्वभावने जाण्यो नथी, एटले शुद्धता ने अशुद्धता वच्चे के स्व अने