खडी ते खडीरूपे ज (पोताना सफेदपणामां ज) विस्तरे छे, खडी कांइ भींतरूपे
विस्तरती नथी. खडी विस्तरीने कदी भींतरूप थती नथी, खडीरूप ज रहे छे; तेम
ज्ञानस्वरूप आत्मा छे ते ज्ञानस्वरूपे ज विस्तरे छे, ज्ञान कांई परज्ञेयमां विस्तरतुं
नथी. आत्मा विस्तरीने कदी परज्ञेयमां जतो नथी, ज्ञानस्वरूपमां ज रहे छे. केटलुं स्पष्ट
भेदज्ञान!! ने आवुं भेदज्ञान करे तो स्वाश्रयमां केवी शांति थाय?
रागने जाणे छे, माटे ज्ञान रागने जाणे छे ते व्यवहार छे; ज्ञान ज्ञान ज छे ए निश्चय
छे. रागने जाणतां कांई ‘रागनुं ज्ञान’ नथी, ‘ज्ञाननुं ज ज्ञान’ छे. आम सर्व पर
भावथी भिन्न ज्ञानने देखवुं ते सम्यग्दर्शन छे.
के जेनुं आ ज्ञान होय. एटले ‘ज्ञाननुं ज्ञान’ एम स्व स्वामी अंशना भेद पाडवामां पण
व्यवहार छे, ते व्यवहारथी खरेखर कांई साध्य नथी. माटे ‘ज्ञान’ ते ‘ज्ञान’ ज छे, एम
ज्ञानने एकने सर्व भेदभावोथी रहित स्वसंवेदनमां लेवुं ते परमार्थ छे.
ज्ञानझंडाने प्रतीतमां लइने ज्ञानी कहे छे के झंडा ऊंचा रहे हमारा.
जड थइ जाय. तात्त्विक संबंध एवो छे के जे जेनुं होय ते ते ज होय, ज्ञान आत्मानुं छे
तेथी ज्ञान ते आत्मा ज छे. तेम ज्ञानपर्यायरूपे परिणमतो चेतयिता, परने जाणतां
छतां परनो नथी पण चेतयितानो ज चेतयिता छे, पोताना सामर्थ्यथी सर्वने
जाणवारूप परिणम्यो तेथी लोकालोकनो ज्ञाता कह्यो, ते व्यवहार छे; खरेखर ज्ञाता
लोकालोकनो नथी, ज्ञाता ज्ञातानो ज छे एवो भेद पण परमार्थमां नथी, ‘ज्ञाता छे’ ते
ज्ञाता ज छे–ए परमार्थ छे.