Atmadharma magazine - Ank 253
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : : ९ :
वस्तुस्वरूपनी मर्यादा
(समयसार–सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारना प्रवचनोमांथी (आसो मास) )
जीव अने अजीव ए बंनेना स्वरूपनी भिन्नभिन्न मर्यादा
समजावीने आचार्यदेव कहे छे के हे भाई! तारो कोई गुण के दोष
परद्रव्यमां तो छे नहि, अने परद्रव्य तने कोई गुण–दोषनुं दाता छे नहि,
तो पछी तेना उपर राग–द्वेष शो? अने ज्ञानमांय राग–द्वेष केवा? माटे
परथी भिन्न निजगुणोनुं भान करीने, सर्वगुणसंपन्न आत्मस्वभाव
तरफ जे वळ्‌यो ते जीव पोताना ज्ञानदर्शन–चारित्रनी निर्मळतामां ज
तन्मयपणे परिणमन करतो थको, अने राग–द्वेषादि भावोमां तन्मय
जरापण नहि थतो थको, ते रागादिने करतो ज नथी. अने परद्रव्य तो
कांई रागद्वेष करावतुं नथी; आ रीते भेदज्ञानना बळे राग–द्वेष निर्मूळ
थईने वीतरागता ने केवळज्ञान थाय छे.
ज्ञाननुं समस्त परद्रव्योथी अत्यंत भिन्नपणुं समजावीने आचार्यदेव कहे छे के
भाई, तारा ज्ञान–दर्शन–चारित्रभावो अचेतन पदार्थोमां तो जरापण नथी. जो आत्मा
अपराध करे तो तेना ज्ञानादिनो घात थाय, पण कांई तेथी देह–वाणी वगेरे अचेतननो
घात थतो नथी. अथवा आत्मा सम्यक्भाववडे पोताना ज्ञानादि गुणोने खीलवे तो
तेथी कांई अचेतन देहादिमां विकास थतो नथी. कोई कहे के जूठुं बोलवामां जो पाप होय
तो जूठुं बोले तेनी जीभ केम कपाती नथी? –अरे भाई! जूठुं बोलवाना भावनुं पाप
जीवमां थाय, अने तेना फळमां अजीवनो (जीभनो) घात थाय–ए न्याय क््यांथी
लाव्यो? हा, आत्माए पापभाव कर्यां तो तेना ज्ञानादि गुणमां घात थयो; पण
अपराध करे आत्मा, ने घात थाय जीभनो–एवो न्याय नथी.
जीवना कोई गुण के दोष परमां नथी; अने परद्रव्य जीवने कांई गुण–दोष
उपजावतुं नथी, शरीरना गुण–दोष उपरथी जीवना गुण–दोषनुं माप थाय नहि. कोई
अज्ञानी विपरीतभाव सेवतो होय छतां शरीर सारूं रहे, ने कोई ज्ञानी धर्मात्मा अनेक
गुणसम्पन्न होय छतां शरीरमां रोगादि होय,–तेथी कांई तेना गुणमां कोई बाधा
आवती नथी. आत्मानो एकेय गुण परमां नथी, तो पछी आत्माना कोई गुणनुं के
दोषनुं फळ परमां