करे छे ने तेमां तन्मयपणे वर्ते छे, –एटले तेनुं अज्ञान ज रागादिभावोनी खाण
छे. अज्ञान नथी त्यां रागादिनुं कर्तृत्व नथी. आम त्रण बोलमां आचार्यदेवे
अद्भुत भेदज्ञान कराव्युं छे.
तारा दोष पण तारामां ज (तारी पर्यायमां ज) थाय छे ने तारा गुण तारामां ज
भरेला छे. ताराथी बहार तारो कोई गुण के दोष नथी. वस्तुस्वरूपनी आवी
मर्यादा छे. पोताना गुण–दोष पोतामां ज छे ने परमां नथी एम जे वास्तविकपणे
जाणे ते स्वाश्रयभावथी गुणोने प्रगट करे ने दोषोने टाळे. एनुं नाम धर्म ने ए ज
मोक्षनो पंथ!
थतो नथी; शरीर मोळुं पडे, ईन्द्रियो शिथिल थाय, वृद्धावस्था थई जाय, रोगादि आवे,
के तेना छेदाई–भेदाईने कटका थाय, तो पण धर्मात्माना सम्यग्दर्शनादि गुणो छेदाता
नथी. जो ते सम्यग्दर्शनादिने शरीर साथे जराय एकता होत के तेनो जराय आधार–
मदद होत तो ते शरीरनी शक्ति हणातां सम्यग्दर्शनादि पण हणात; अथवा अज्ञानीने
शरीरनी पुष्टि थतां श्रद्धा–ज्ञाननी पण पुष्टि थात. पण एवो कोई संबंध नथी. तुं दोष
कर तो तारामां, ने तुं गुण प्रगट कर तो ते पण तारामां; तारा दोष के गुण परमां नथी;
माटे परद्रव्यने तारा दोष–गुणनुं उत्पादक न देख. तारो अंतर स्वभाव गुणनो भंडार
छे ते ज गुण प्रगटवानी खाण छे, तेमां अंतरद्रष्टि करतां सम्यग्दर्शनादि गुणो प्रगटे छे.
ने पोताना स्वभावने भूलीने परमां के विकारमां जे एकत्वबुद्धि करे छे तेने ते
एकत्वबुद्धिरूप अज्ञान ज दोषनी उत्पत्तिनुं मूळ छे.
नहि; अने हवे भेदज्ञान वडे स्वाश्रय करीने ते सम्यग्दर्शनादि भावोने उत्पन्न करनार
पण हुं ज छुं, तेमां कोई बीजो सहायक नथी, के बीजा कोईनी ताकात नथी के तेनो घात
करी शके. –आम स्वसत्तामां ज मारुं सर्वस्व छे. एवो सम्यक्निर्णय करनार जीव
पोताना