शुद्ध द्रव्यने देखे छे अने रागादि अशुद्धभावोने एकत्वपणे पोतामां कदी करतो नथी. आ
रीते शुद्धद्रष्टि वडे ते धर्मात्मा रागद्वेषने अत्यंत क्षय करतो करतो शुद्ध चैतन्यतेजथी
दीपी ऊठे छे.
सम्यक्त्वादि गुणो प्रगटे छे, ने परसन्मुखताथी कदी सम्यक्त्वादि प्रगटता नथी.
परसन्मुख गुण प्रगटवानुं जे माने तेने मिथ्यात्वादि दोष प्रगटे छे. माटे हे भाई!
पराश्रय छोडीने स्वाश्रय तरफ वळ...ए ज धर्मनी चावी छे. परथी पोताना गुणदोष
माने तेने पर उपर राग–द्वेष थया विना रहे नहि एटले उपशमभाव तो थाय ज नहि.
धर्मात्मा तो आ जाणीने अत्यंत उपशमभावने पामे छे, परप्रत्ये अत्यंत मध्यस्थ
उदासीन थईने स्वद्रव्यने ज ते अवलंबे छे. स्वावलंबी भाव ए ज वीतरागी
उपशमभाव छे, एमां ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे.
छे? ना; जो एम होय तो तो, ज्यारे सिंह शरीरने खाई जाय त्यारे भेगा भेगा
रत्नत्रय पण खवाई जाय. पण एम नथी; ऊल्टुं शरीरने सिंह खातो होय, शरीर
तो क्षीण थतुं होय ने मुनि रत्नत्रयनी ऊग्रता करीने केवळज्ञान पामी जाय. आम
चेतनपर्यायोने अचेतनथी अत्यंत उदासीनता छे, भिन्नता छे. शरीरनो दाखलो
आप्यो ए ज रीते राग साथे पण जीवना गुणोने (निर्मळ पर्यायोने) आधार
आधेयपणानो जराय संबंध नथी. रागनी तो हानि थाय छे ने गुणनी वृद्धि थाय
छे. अज्ञानी तो जाणे रागना आधारे धर्म थशे एम माने छे, शुभरागनी वृद्धिथी
जाणे मारा गुणोनी वृद्धि थशे एम ते रागमांथी पोताना सम्यक्त्वादि गुणो
आववानुं माने छे. पण भाई, रागमां तो तारो एकेय गुण नथी. तारा गुणने
रागथी अत्यंत भिन्नता छे–जेवी देहथी भिन्नता छे तेवी. जेम देहना आधारे गुण
नथी तेम रागना आधारे पण गुण नथी. सम्यक्त्वादि प्रगटवामां रागनुं
अवलंबन जराय नथी; चिदानंद स्वभावी शुद्ध द्रव्यनुं एकनुं ज अवलंबन छे.–
आम हे जीवो! तमे देखो! आचार्यदेव पोतानी साक्षीथी कहे छे के परद्रव्य आ
आत्माने गुणदोषनुं जरापण उत्पादक नथी–एम अमे तो देखीए छीए, अने हे
जीवो! तमे पण सम्यक् प्रकारे एम ज देखो...ने उपशमभावने पामो.