Atmadharma magazine - Ank 253
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : : १३ :
(समयसार–सर्वविशुद्धज्ञानअधिकारना प्रवचनोमांथी २)
आत्माना ज्ञानस्वभावनुं परथी अत्यंत निरपेक्षपणुं छे; ज्ञाननी
निर्मळताने लीधे ज्ञाता–ज्ञेयपणाना संबंध जेटलो व्यवहार होवा छतां
परमार्थे ज्ञानने अने परने कांई लागतुंवळगतुं नथी, परस्पर
एकबीजानुं अत्यंत अकर्तापणुं छे. अरे, ‘आत्मानुं ज्ञान छे, अथवा
ज्ञायक ज्ञायकनो ज छे’ –एवा स्वस्वामीत्वना भेदविकल्परूप व्यवहार
पण ज्यां परमार्थअनुभवमां पोषातो नथी, ए अंदरनो विकल्प पण
परमार्थस्वभावने पकडवामां काम आवतो नथी त्यां बहारना पर
साथेना संबंधरूप व्यवहारनी तो वात ज शी? ज्ञाननुं निरपेक्षस्वरूप
समजावीने पर साथे संबंध तोडावी ने परमार्थस्वभाव तरफ जवानुं
मार्गदर्शन करनार आ प्रवचनोनो पहेलो भाग ‘आत्मधर्म’ ना
गतांकमां आवी गयो छे; त्यार पछीनो बीजो भाग अहीं आपवामां
आव्यो छे.

पोतामां जे नथी, तेनो त्याग शुं?
ज्ञानदर्शनथी भरेलो जे आत्मस्वभाव, ते स्वभावमां राग के परद्रव्यो कदी
तन्मय थया ज नथी, तो पछी ‘तेने हुं छोडुं’ एवुं स्वभावमां क््यां रह्युं? जेम सफेद
खडीमां काळापणानो अभाव ज छे, तो ते खडी काळाशने शुं छोडे? ए तो काळाशना
अभावरूप स्वभाववाळी ज छे. तेम चेतनारो आत्मा, तेमां अचेतन वगेरे परद्रव्योनो
अभाव ज छे, तो ते चेतयिता ते परद्रव्योने शुं छोडे? ए तो परद्रव्यना अभावरूप
स्वभाववाळो ज छे. परनो त्यागनार कहेवो ते तो व्यवहारथी ज छे, अने आत्मा
पोताना निर्मळ भावोने ग्रहे छे–एमां पण भेदरूप व्यवहार छे. आत्मा पोताना निर्मळ
भावोमां तन्मय ज छे; एनाथी कांई जुदो नथी के एने ग्रहण करे. आत्मा स्वभावथी
ज ज्ञानदर्शनथी भरपूर छे ने परना त्यागरूप छे, –आवा स्वभावने लक्षमां लईने
तेमां एकाग्र थयो त्यां